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DevBhoomi Insider Desk
• Sat, 2 Sep 2023 12:51 pm IST


एक जरा-सी चदरिया पर धर लाए चांद


चंद्रयान -3 की सफलता का लाइव शो हमने देखा और इस सोच पर रोमांचित हुए कि भारत विश्व का पहला देश बन गया जिसने चंद्रमा के अछूते दक्षिणी ध्रुव पर सकुशलता से अपना लैंडर पहुंचाया। चार साल पहले चंद्रयान -2 मिशन के आखिरी पड़ाव में हम असफल हुए थे और तब तत्कालीन इसरो चीफ के. सिवम अपनी निराशा को जज्ब न कर पाए थे और रो पड़े थे। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने सीने से लगाकर सांत्वना दी थी। देखिए वक्त कितनी तेजी से गुजरा। चार साल बाद इसरो की भीतरी दुनिया का वही दृश्य था, पर इस बार प्रधानमंत्री मोदी का सीना नायाब कामयाबी के गर्व से भरा हुआ था और उनके चेहरे पर विश्व पटल पर तेजी से उभरते शक्तिशाली राष्ट्र का प्रधानमंत्री होने का दर्प झलक रहा था। इस बार इसरो के सीफ एस. सोमनाथ के चेहरे पर आंसू नहीं मुस्कान थी।

इसरो की यह कामयाबी कितनी बड़ी है इसका ठीक अंदाजा आने वाले दिनों में ही लगाया जा सकेगा। लेकिन कुछ तथ्य हैं जिनके जरिए हम इसरो के इस कारनामे की कीमत समझने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन पहले इस तथ्य को भी जान लें कि भारत को चांद के दक्षिणी ध्रुव परअपना रोवर और लैंडर उतारने वाले विश्व के पहले राष्ट्र का खिताब मिला क्योंकि कुछ दिन पहले ही चंद्रमा तक का सफर करने में भारत की तुलना में कहीं ज्यादा अनुभवी और समर्थ रूस का लैंडर लूना-25 क्रैश हो गया था। भारत इस खिताब का हकदार था क्योंकि उसने न सिर्फ चांद के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम को उतारा बल्कि सुनहरा इतिहास बनाने वाले इस कारनामे को अंजाम देने के लिए उसने महज 75 मिलियन डॉलर यानी लगभग 600 करोड़ रुपये खर्च किए। यह कितना कम बजट है इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि क्रिस्टोफर नोलान की अंतरिक्ष की दुनिया को अपने निराले अंदाज में दिखाने वाली हॉलिवुड फिल्म इंटरस्टेलर को बनाने में 165 मिलियन डॉलर यानी लगभग 1320 करोड़ रुपया खर्च हुआ। पोस्ट प्रोडक्शन खर्च को जोड़ लिया जाए, तो इस फिल्म पर चंद्रयान-3 की तुलना में लगभग 1000 करोड़ रुपया ज्यादा खर्च हुआ। यही आंकड़ा असल में भारत की शक्ति को दिखाता है और स्पेस को लेकर कई प्रोजेक्ट तैयार कर रहे एलन मस्क जैसे व्यक्ति से भी इस शक्ति की जय करवाता है।

जिन लोगों ने विक्रम की चांद की सतह पर लैंडिंग का लाइव प्रसारण देखा, उन्होंने इस मिशन को सफल करने वाले वैज्ञानिकों के चेहरों को भी देखा होगा। दफ्तर में अपने पत्रकार साथियों के साथ यह प्रसारण देखते हुए मैंने लगभग सभी साथियों को कहते पाया – अरे इन वैज्ञानिकों को देखो! ऐसा लगता है जैसे कि ये इसरो में वैज्ञानिक नहीं बल्कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर हैं। उनके कहने का आशय था कि शक्ल और वेशभूषा में वे सभी वैज्ञानिक बहुत जमीन से जुड़े हुए मध्यवर्गीय परिवारों के लोग लग रहे थे। उनकी बात पर खयाल आया कि शहरों से इंजीनियरिंग में टॉप करने वाले छात्र विदेशों में जाकर मल्टीनैशनल कंपनियों में ऊंची पगार पर काम करते हैं। पर ग्रामीण भारत मां के आंचल में पले बच्चे इसरो जैसे संस्थान में जाकर राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन झोंक देते हैं। इसरो में भारत के इन दूर-दराज के जिलों-कस्बों से आए इन्हीं सीधे-सादे वैज्ञानिकों का कमाल था कि ऐसे ऐतिहासिक मिशन में काम आने वाली एक-एक चीज को सीमित बजट में बहुत सूझबूझ और मेहनत से बनाया गया। उन्होंने अपनी चादर को ज्यादा फैलने नहीं दिया। एक जरा-सी चदरिया में ही वे देश के लिए चांद धर लाए। इसरो चीफ और उनके वैज्ञानिकों की टीम का जितना यशगान किया जाए कम है। एलन मस्क दुनिया में पैसे वालों को मंगल की सैर कब करवाएंगे, यह तो वक्त बताएगा, पर इसरो के ये वैज्ञानिक भारत के गरीबों को चंद्रमा तक पहुंचाकर मानेंगे, चंद्रयान-3 की कामयाबी यही ऐलान कर रही है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स