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DevBhoomi Insider Desk
• Sat, 23 Oct 2021 6:14 pm IST


चांद को लेकर दुनिया में कड़ा होगा मुकाबला


भारत का चंद्रयान-2 मून लैंडर करीब दो साल पहले 7 सितंबर 2019 को चंद्रमा पर धूल के बादलों में जा गिरा और किसी इंसान की नजरें इसकी गवाह न बन सकीं। इसरो के चेयरमैन के सिवन ने तब भी इस मिशन को ‘98 प्रतिशत’ कामयाब बताया। मिशन मुश्किल था, लेकिन सिवन की बातों में एक आस भी छिपी थी। इसमें वह हौसला भी था, जो भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और उसकी हसरतों की बुनियाद रहा है। यह भी सच है कि भारत के चंद्रमा अभियान की चुनौतियां सिर्फ साइंटिफिक और तकनीकी नहीं हैं। आज दुनिया के कई देश और निजी कंपनियों की नजर चांद पर है। इसलिए अंतरिक्ष में इंसान क्या कर सकता है और क्या नहीं, इसके नियम-कानून भी बनाने होंगे। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है।
चांद बंजर है। वहां जीवन नहीं है। वह इंसानी जिंदगी के लिए मुफीद नहीं। लेकिन इसमें कुछ खूबियां भी हैं। यह धरती के करीब है। वहां गुरुत्वाकर्षण बल यानी ग्रेविटी कम है। इसलिए अंतरिक्ष में सुदूर के मिशन के लिए वह लॉन्च पैड हो सकता है। इससे सोलर सिस्टम के अंदर और एस्टेरॉयड बेल्ट के बाहर जो अंतरिक्ष का विस्तार है, इंसान उसे एक्सप्लोर कर पाएगा। चांद पर कुदरती संसाधन भी बहुत हैं। इनका इस्तेमाल भविष्य में नए अभियानों के लिए ईंधन के रूप में भी किया जा सकता है। मिसाल के लिए, भारत के चंद्रयान-1 ने चांद की सतह पर पानी की खोज की थी। इससे हाइड्रोजन को अलग करके उसका ईंधन के रूप में और ऑक्सिजन का सांस लेने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
वैसे, नासा भी चांद पर एक्सप्लोरेशन में काफी दिलचस्पी दिखा रहा है। अपोलो मिशन के बाद आर्टेमिस इस सिलसिले में उसका सबसे महत्वाकांक्षी प्रोग्राम है। नासा इस प्रोग्राम के तहत नए लॉन्चर्स, स्पेसक्राफ्ट और ग्राउंड बेस्ड फैसिलिटी तैयार करेगा। वह चांद के ऑर्बिट में ऐसा गेटवे मॉड्युल बनाना चाहता है, जिससे सुदूर अंतरिक्ष में खोज की जा सके। अगर भारत आर्टेमिस प्रोग्राम में साझेदार बनता है तो उसके चंद्रयान अभियान में तेजी आ सकती है, लेकिन इसके लिए उसे नासा की कुछ शर्तें माननी होंगी। ऑस्ट्रेलिया, जापान, ब्राजील, दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन सहित 11 देश पहले ही इससे जुड़ चुके हैं। इसके लिए नासा की जो पूर्व शर्तें हैं, उनमें से ज्यादातर 1967 के अंतरिक्ष समझौते का हिस्सा थीं। इस अंतरिक्ष समझौते में भारत शामिल था।
आर्टेमिस प्रोग्राम की एक शर्त अंतरिक्ष में खनन और संसाधनों के इस्तेमाल की अनुमति देती है। वहीं, 1967 के समझौते में कहा गया था कि अंतरिक्ष में किसी चीज को कोई देश अपनी मिल्कियत नहीं घोषित कर सकता। इसमें निजी कंपनियों की मिल्कियत को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है। इससे चांद के संसाधनों के इस्तेमाल का रास्ता खुला हुआ है। चूंकि अमेरिका वैश्विक व्यावसायिक अंतरिक्ष उद्योग में अगुआ है, इसलिए इससे सबसे अधिक फायदा उसे ही होगा।
इस पूरे मामले में भारत के लिए उलझन की स्थिति बन गई है। नासा के आर्टेमिस प्रोग्राम के मुकाबले रशिया-चाइना इंटरनैशनल लूनर रिसर्च स्टेशन प्रॉजेक्ट (आईएलआरएस) भी वजूद में है। रूस और चीन इस साल के अंत तक आर्टेमिस जैसा अपना प्रोग्राम ला सकते हैं। ऐसे में भारत के पास तीन रास्ते रह जाएंगे। वह नासा के आर्टेमिस प्रोग्राम से जुड़े, आईएलआरएस का हिस्सा बने या अकेले ही एक्सप्लोरेशन के काम को आगे बढ़ाए। भारत अगर अकेले बढ़ने का फैसला करता है तो बड़े मौके हाथ से निकलने का डर है। आईएलआरएस से चीन जुड़ा है, इसलिए भारत के लिए इसका हिस्सा बनना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में उसके पास सबसे बेहतर विकल्प नासा के आर्टेमिस प्रोग्राम से जुड़ना हो सकता है।
इसका मतलब यह नहीं है कि भारत अमेरिका की सारी मांगें मान ले। भारत को अमेरिका के सामने तकनीक और स्पेस इन्फ्रास्ट्रक्चर साझा करने की एक प्रक्रिया बनाने की मांग करनी चाहिए। वह इस काम के लिए क्वाड वर्किंग ग्रुप जैसे मंचों का इस्तेमाल कर सकता है। इसके अलावा, उसे रूस के साथ इस क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग को भी जारी रखना चाहिए। ऐसा करने से भारत को आईएलआरएस प्रॉजेक्ट के तहत बनने वाली कुछ क्षमताओं का लाभ मिल सकता है।
 सौजन्य – नवभारत टाइम्स