आचार्य नरेन्द्र देव की जयंती पर याद करते हुए उनके शिक्षा शास्त्री वाले व्यक्तित्व पर बात करना बेहद सामयिक और प्रासंगिक है।विगत वर्षों में विभिन्न अकादमिक बहसों में भारत के गिरते शोध स्तर एवं विश्वविद्यालयीय शैक्षणिक माहौल पर गंभीर चिंता की जा रही है। ऐसे में आचार्य जी द्वारा जवाहरलाल नेहरू के विशेष आग्रह पर 1926 में काशी विद्यापीठ से जुड़ना और उसके चेयरमैन के रूप में कार्य का सहज स्मरण हो जाता है। साथ ही लखनऊ और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति बेहतर शैक्षणिक स्तर बनाये रखने के कार्यकाल की भी याद आ जाती है।
हाल ही में यह विमर्श तेजी से उठा है कि कुलपति के पद पर राजनीतिकरण की वजह से बेहतर चयन प्रभावित हो रहा है। यह बात राजनीति और शिक्षा के गहरे प्रभाव की दिशा को ही दर्शाती है। जिस तरह आईआईटी और देश के विभिन्न विश्वविद्यालय के कुलपति सहित उच्च शिक्षण संस्थानों पर राजनैतिक नियुक्ति से सम्बंधित प्रकरण सामने आये हैं उनसे ये बात तय हो रही है कि शिक्षाविदों
को अपने बेहतर अकादमिक ज्ञान के साथ समाज पर इतना गहरा प्रभाव बनाये रखना चाहिए कि उनकी स्वीकार्यता ना केवल संस्थान विशेष या राजनीति विशेष में प्रासंगिक रहे बल्कि समाज में भी व्यापक प्रभाव वाला हो।
आचार्य नरेन्द्र देव पूरे जीवन एक सक्रिय शिक्षा शास्त्री बने रहे। उनके जीवन की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ पढ़ने और राजनीति करने की रही। इसी वजह से वो समाजवादी विचार के शुरूआती चरण में मुफ्त पढ़ाई को लेकर आजीवन गंभीर प्रयास करते दिखे। लेकिन समकालीन परिस्थितियों में पढ़ाई के खर्चों में बेतहासा हो रही वृद्धि चिंताजनक है। वैश्विक स्तर पर लैटिन अमरीकी देश चिली में उच्च शिक्षा को मुफ्त करने की पहल को लेकर पूरी दुनिया में उत्साह देखने को मिला। जिसके साथ ही
उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए आवश्यक मद की पूर्ति पूजीपतियों से कर संग्रहण के माध्यम से करने की शुरुआत हुयी है। वही भारत में लगातार शिक्षा एक व्यवसाय के रूप में स्थापित हो रही है। जिसपर पूंजीपतियों की पकड़ मजबूत होती जा रही है। निर्वाचित सरकारें भी शिक्षा के व्यवसायीकरण में सहयोग करती दिख रही है।महंगी शिक्षा होने के कारण समाज का एक बड़ा वर्ग इससे वंचित हो जा रहा है। कारपोरेट के प्रभाव में शिक्षा को विशुद्ध व्यावसायिक मॉडल बना दिया गया है जिससे
गुणवत्ता परक शिक्षा प्रभावित हो रही है। इन परिस्थितियों में नरेन्द्र देव के समाजवादी मॉडल पर कार्य करने की देश को विशेष आवश्यकता दिख रही है।
आचार्य नरेन्द्र देव सोशलिस्ट आन्दोलन के पुरोधा और आधुनिक समाजवादी विचारधारा के मार्गदर्शक थे। उनके व्यक्तित्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1947 में महात्मा गांधी जी ने स्वयं कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए उनके नाम का प्रस्ताव किया। नरेन्द्र देव न केवल राजनीतिज्ञ थे बल्कि एक योग्य शिक्षक,मेधावी छात्र,विचारक एवं भारतीय संस्कृति और परम्परा के महान व्याख्याता व समर्थक थे। वह 1947-51 तक लखनऊ विश्वविद्यालय और 1951-53 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनके द्वारा लिखित साहित्य से उनके समर्पित शिक्षक होने का पता चलता है। विद्यार्थियों के प्रति उनके लेखो में विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर,स्वाभिमानी और अनुशासन प्रिय बनने के लिए प्रेरित करने की बात कही गयी है। उनके द्वारा लिखित साहित्य लोगों को अच्छा मनुष्य और नागरिक बनने का सन्देश देते है। उनको जानने वाले अनेक महत्वपूर्ण
लोगो के अनुसार नरेन्द्र देव चाहते थे कि सभी भारतीय साक्षर नही बल्कि शिक्षित बनें।
उनका मत था कि भारत जैसा नवलोकतान्त्रिक राष्ट्र तभी विकास कर सकता है,जब इसके सभी नागरिक शिक्षित हों। उन्होंने शिक्षा एवं धर्म जैसे विषयों पर भी कई गंभीर लेख लिखे। हिंदी भाषा एवं साहित्य के विकास के लिए वह कई समितियों के सदस्य भी रहे। अखिल भारतीय राष्ट्रीय भाषा समिति और हिंदी साहित्य सम्मेलन के सक्रिय सदस्य के रूप में उन्होंने देश के बौद्धिक विकास में अमूल्य योगदान दिया।
आचार्य जी के विचारों में श्रमण शब्द का विशेष आग्रह था। सनातन संस्कृति को मानते हुए उन्होंने गांधी के बारे में लिखा है “वह पुरुष जो आज हिन्दू धर्म में किसी नियम को नही मानता,वह क्यों असंख्य सनातनी हिन्दुओं का आराध्य देवता बना हुआ है। पंडित समाज चाहे उनका भले ही विरोध करे किन्तु अपढ़ जनता उनकी पूजा करती है। इस रहस्य को हम तभी समझ सकते हैं, जब हम जानें कि भारतीय जनता पर श्रमण संस्कृति का कही अधिक प्रभाव पड़ा है। जो व्यक्ति घर-बार
छोड़ कर निःस्वार्थ सेवा करता है उसके आचार की ओर हिन्दू जनता ध्यान नही देती।”
19 फरवरी 1956 में उनके निधन के बाद सामाजिक जीवन विशेषकर युवाओं में उनके विचारों को लेकर पर्याप्त प्रचार-प्रसार नहीं हुआ। सामाजिक जीवन की आज जो दुर्दशा है और युवा जिस प्रकार दिग्भ्रमित हो रहे हैं,उस परिस्थिति में आचार्य जी से सम्बंधित साहित्य समाज के सभी प्रमुख क्षेत्रों से जुड़े लोगों विशेषकर शिक्षक,विद्यार्थी,सोशल एक्टिविस्ट आदि पर स्वस्थ प्रभाव डाल सकते
हैं। उन्होंने भारतीय समाजवाद के सैद्धान्तिक विकास में अग्रणी भूमिका निभाई।उनके चिंतन और लेखन का प्रभाव न केवल समाजवादी आन्दोलन पर बल्कि राष्ट्रीय विकास के अन्य क्षेत्रों पर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ा। इसीलिए उनकी गणना आधुनिक भारत के प्रमुख निर्माताओं में होती है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स