पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वोटों के लिए NDA और I.N.D.I.A. गठबंधन के बीच जंग और भी तीखी होती जा रही है। वास्तव में पिछड़ा, अति पिछड़ा और अति दलित वोट से ही चुनावी लड़ाई का फैसला होगा। विपक्षी दलों को भी इस बात का अहसास है कि अति पिछड़े वोटों के बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता।
लड़ाई क्यों: विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. के लगभग सभी बड़े नेता BJP पर आरोप लगा रहे हैं कि वह यदि सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म कर देगी। उधर, BJP ने यह कहकर मोर्चा खोल दिया है कि कांग्रेस पिछड़ों का आरक्षण मुसलमानों को देना चाहती है। आखिर अति पिछड़े और अति दलित वोटों के लिए यह जंग क्यों हो रही है? इस आम चुनाव में यह वर्ग किसके साथ है?
बंटी हुई राय: बरेली से 15 किलोमीटर दूर पड़ता है गांव परसा खेड़ा। यहां के मोहन पाल अति पिछड़े हैं और उनका कहना है कि अगर मोदी को आरक्षण खत्म ही करना होता तो 10 साल में ऐसा कुछ दिखता जरूर। लेकिन, लखनऊ के बख्शी का तालाब के राम सिंह यादव कहते हैं, ‘आरक्षण खत्म करने की पूरी तैयारी हो रही है, इसीलिए माहौल अखिलेश यादव के पक्ष में लग रहा है।’
कैसे पलटी बाजी: वास्तव में अति पिछड़े और अति दलित चुनाव के केंद्र में आ गए हैं। यह लड़ाई इसलिए भी तीखी हो रही है, क्योंकि विपक्षी दल समझ चुके हैं कि नरेंद्र मोदी की असली ताकत अति पिछड़े और अति दलित ही हैं। इस वोटबैंक में सेंध लगाए बिना चुनावी लड़ाई नहीं जीती जा सकती। 2014 के पहले पिछड़ा वर्ग के बीच समाजवादी पार्टी (SP) ज्यादा मजबूत थी और दलित, अति दलित वोटर्स के बीच BSP प्रमुख मायावती का गहरा प्रभाव था। लेकिन, स्थितियां इस तरह पलटीं कि यह वर्ग मोदी के पीछे खड़ा हो गया।
एकता में ताकत: 2014 के बाद से यह साफ हो चुका है कि पिछड़ों का मतलब केवल संख्या की दृष्टि से ज्यादा बड़ी और सशक्त जातियां नहीं, बल्कि वे तमाम जातियां हैं जो बिखरी हुई रही हैं, लेकिन एकजुट होकर बड़ी ताकत बन गई हैं। अब वे किसी को भी हरा और जिता सकती हैं। राहुल गांधी हों, तेजस्वी यादव या फिर अखिलेश यादव – सभी समझ चुके हैं कि अति पिछड़ा और अति दलित के समर्थन के बिना वे चुनावी जंग नहीं जीत सकते।
समाजवादी पार्टी का संघर्ष: SP प्रमुख अखिलेश यादव ने इस बार PDA यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नारा दिया है। क्या इससे उन्हें कामयाबी मिलेगी? इसमें कोई दो राय नहीं कि BJP के किले को भेदने की अखिलेश हर संभव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यह इतना आसान नहीं है। जमीन पर देखने से साफ हो जाता है कि अति पिछड़ों में अब भी मोदी का प्रभाव है और SP उसमें सेंध नहीं लगा पाई है।
BJP की चुनौती: 2014 से लगातार चुनावी मात खाने वाला विपक्ष समझ चुका है कि उसे किसी भी तरह से उस अति पिछड़े वर्ग को साथ लाना होगा, जो उससे दूर चला गया है। वास्तव में 2014 के पहले अति पिछड़ा और अति दलित मतदाता बिखरा हुआ था, किसी एक को वोट नहीं कर रहा था। लेकिन, मोदी के आने के बाद यह वर्ग एकजुट हुआ है। BJP के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह अपने इस वोट बैंक को कैसे बचाए। लेकिन, विपक्ष के सामने चुनौती और भी बड़ी है। उसे सोचना है कि कैसे अति पिछड़े मतदाताओं को अपने साथ जोड़े।
निर्णायक स्थिति: मोदी जानते हैं कि पिछले दो लोकसभा चुनावों में यूपी और बिहार में उन्हें जो भारी सफलता मिली, उसके पीछे इसी वर्ग का समर्थन था। यह मतदाता वर्ग कितना निर्णायक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मोदी के सामने सबसे कठिन चुनौती 2019 के लोकसभा चुनाव की थी। यूपी में SP, BSP और राष्ट्रीय लोकदल (RLD) ने गठबंधन किया था। आंकड़ों में इस गठबंधन का वोट प्रतिशत 50 से ज्यादा जा रहा था। इसके बावजूद उस चुनाव में विपक्षी गठबंधन को बुरी हार का सामना करना पड़ा। 2019 में यूपी से जो परिणाम आए, उसने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों के होश उड़ा दिए।
यूपी का रण: अब आते हैं साल 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव पर। तब बड़ी संख्या में अति पिछड़े नेताओं ने BJP का साथ छोड़ा और SP के साथ जा खड़े हुए। लेकिन, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अति पिछड़ा मतदाता BJP के साथ डटा रहा। तमाम आकलन को झुठलाते हुए BJP भारी बहुमत के साथ फिर यूपी की सत्ता में आ गई।
असंतोष की वजह: अति पिछड़े और अति दलित के BJP से जुड़े होने का कारण क्या है, इसे समझना होगा। यह धारणा रही है कि पिछड़ा वर्ग में कुछ बड़ी जातियां अति पिछड़ों का हिस्सा हजम कर जाती हैं। इसे लेकर काफी असंतोष भी रहा। जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई तब पिछड़ा एक वर्ग था, लेकिन जब पिछड़ों में एक तबके को उसका कोई लाभ नहीं मिला तो उस वर्ग में असंतोष पैदा हुआ। वही मतदाता 2014 में मोदी के पीछे खड़ा हो गया।
हक की लड़ाई: पिछले चुनावों में BJP को अति पिछड़ा और अति दलित वर्ग के बड़े हिस्से का साथ मिला। वहीं, राहुल गांधी भी साबित करना चाहते हैं कि कांग्रेस और उनका गठबंधन अति पिछड़े और अति दलित के साथ है। इसीलिए राहुल जाति जनगणना का मुद्दा उठाते हैं। लेकिन, पिछले चुनावों में उन्हें इस सिलसिले में कुछ राज्यों को छोड़ दें तो बड़ी कामयाबी नहीं मिली।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स