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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 16 Nov 2021 5:43 pm IST


विपक्ष को बंधक बना चुनाव जीतने वाला राष्ट्रपति


मध्य अमेरिकी देश निकारागुआ में बीते हफ्ते हुए नेशनल असेंबली समेत राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आए। मध्य अमेरिका के सबसे बड़े इस देश में पूर्व मार्क्सवादी छापामार डेनियल ओर्तेगा लगातार चौथी बार राष्ट्रपति बनने में कामयाब हुए। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो ओर्तेगा को 76 फीसदी वोट मिले। उनके प्रतिद्वंदी वाल्टर एस्पिनोजा को 14 फीसदी वोट से ही संतोष करना पड़ा। यानी ओर्तेगा बिलकुल ही एकतरफा जीत हासिल करने में कामयाब हुए।
यह कोई पहला मौका नहीं है जब ओर्तेगा को इतनी बड़ी जीत मिली है। पिछली बार 2016 में जब आम चुनाव हुए, तब उनकी पार्टी ‘सांदिनिस्ता नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ को 72 फीसदी वोट मिले थे। दरअसल, ओर्तेगा को बड़ी जीत मिली है यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि ओर्तेगा को यह जीत कई तरह के राजनीतिक दावपेंच लगाने के बाद मिली है। ओर्तेगा की चालबाजियों से निकारागुआ में मानवाधिकार हनन के सवाल खड़े हो गए हैं। यही कारण है कि अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों ने इस चुनाव को धांधली से ओतप्रोत बताया है। अमेरिका ने तो ओर्तेगा को आर्थिक प्रतिबंध की धमकी भी दी है। सवाल है कि ओर्तेगा ने क्या चाल चली है?
अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक चुनाव से पहले ओर्तेगा ने अपने मजबूत राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को जेलों में डाल दिया। वहां की पुलिस ने 40 विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जिनमें 7 राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी थे। इससे चुनाव मैदान में ओर्तेगा को टक्कर देने वाला एक भी उम्मीदवार नहीं रहा और उनकी एकतरफा जीत तय हो गई।
दूसरी ओर विपक्षी नेताओं ने देश की जनता से वोट न करने की अपील की। इसके चलते करीब 35 फीसदी लोगों ने वोट नहीं किया। इसके अलावा, अप्रैल 2018 में निकारागुआ में राजनीतिक संकट पैदा हो गया था। जब ओर्तेगा पेंशन खत्म करने और टैक्स में इजाफे की योजना लेकर आए, तो छात्रों ने इसका पुरजोर विरोध किया और देश में सरकार के खिलाफ आंदोलन होने लगे। इस आंदोलन से निपटने के लिए ओर्तेगा ने बर्बरतापूर्ण रवैया अपनाया। सरकार की कार्रवाई में 328 प्रदर्शनकारी मारे गए, करीब दो हजार घायल हो गए। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी मानवाधिकार उच्चायोग के मुताबिक तब करीब एक लाख से ज्यादा लोग देश छोड़ कर भाग गए थे जो अब तक देश वापस नहीं लौटे हैं। सिर्फ राजनीतिक अधिकार ही नहीं, बुनियादी जरूरतों को हासिल करने के लिए भी इन निर्वासित नागरिकों को दूसरे देशों में भटकना पड़ रहा है। लिहाजा, एक बड़ी आबादी ने वोट ही नहीं डाले, जिसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ा। जाहिर है, इससे भी ओर्तेगा की सत्ता में वापसी आसान रही।
डेनियल ओर्तेगा का यह रवैया इसलिए भी अंचभे में डालने वाला है, क्योंकि वह खुद एक तानाशाही सरकार के खिलाफ बिगुल फूंक कर पहली बार सत्ता में आए थे। 1979 में क्यूबा की मदद से तानाशाह सोमोजा का तख्तापलट कर दिया था। दरअसल, 1937 में सोमोजा परिवार सत्ता पर काबिज हुआ था। लेकिन, 42 साल के कार्यकाल में सरकार पर देश में भ्रष्टाचार और असमानता बढ़ाने का खूब आरोप लगा। नागरिकों को उनके बुनियादी हकों से महरूम होना पड़ा। देश में असमानता इस कदर बढ़ी कि 1970 आते-आते देश में छात्र, किसान, वामपंथी संगठन और चर्च सोमोजा सरकार के खिलाफ एकजुट होने लगे। तभी ओर्तेगा सोमोजा सरकार को गिराने में कामयाब हो सके थे। लेकिन, बीतते वक्त साथ ओर्तेगा भी उसी ढर्रे पर चलने लगे। पिछले तीन चुनावों में ओर्तेगा पर धांधली से जीतने के आरोप लगे हैं।
हालिया चुनाव नतीजे के बाद अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ओर्तेगा से दोबारा चुनाव कराने की मांग की है। संयुक्त राष्ट्र को भी चाहिए कि वह इस मामले को गंभीरता से ले। प्रतिद्वंदियों को बंधक बना कर चुनाव कराने की यह कोशिश न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर चोट करने जैसा है, बल्कि ओर्तेगा दुनिया के लिए बेहद गलत उदाहरण भी पेश कर रहे हैं। नागरिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करने पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को सख्त होना पड़ेगा। निकारागुआ से निर्वासित नागरिकों की वापसी पर संयुक्त राष्ट्र को गंभीर होना होगा। जब तक लोगों की वापसी नहीं हो जाती, तब तक निकारागुआ में सही अर्थों में लोकतंत्र बहाल नहीं हो सकेगा।
 
सौजन्य से – नवभारत टाइम्स