उदयपुर में हुआ कांग्रेस का चिंतन-शिविर और राहुल गांधी की लंदन-यात्रा- दोनों घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे कांग्रेस के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद जगना आसान नहीं लग रहा है। वैसे चिंतन-शिविर, यह नाम अपने आप में बहुत आशा जगा देता है। उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस के नेता इस शिविर में इस मुद्दे पर विचार करेंगे कि पार्टी दिनोंदिन कमजोर क्यों होती जा रही है? उसके नामी-गिरामी नेता और कई कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों की तरफ क्यों लपक रहे हैं? उसके कारण क्या हैं और उन कारणों का निवारण कैसे किया जाए? चिंतन-शिविर तो पूरा हो गया, लेकिन क्या कांग्रेस की चिंता दूर हुई?
परिवारवाद का घेरा
कांग्रेस की चिंता देश को इसलिए करनी चाहिए कि यदि वह खत्म हो गई और उसका कोई सक्षम विकल्प नहीं उभरा तो भारत का लोकतंत्र निरंकुश हो सकता है। भारत में सत्तारूढ़ दल की स्थिति वैसी ही हो जाएगी, जैसी कि चीन और रूस में है। यदि भारत के लोकतंत्र की चिंता कांग्रेस को होती तो सबसे पहले वह अपने आंतरिक लोकतंत्र पर ही विचार करती। वह कांग्रेस को परिवारवाद के घेरे से बाहर निकालने की कोशिश करती। उसने 50 वर्ष तक के कांग्रेसियों को महत्व देने का प्रस्ताव किया, यह प्रशंसनीय पहल है। लेकिन जरा सोचिए कि इसी पहल को 40 साल तक क्यों नहीं सीमित किया गया? सिर्फ 5 साल के पार्टी अनुभव के पीछे भी वही कारण है, जो 50 साल की सीमा के पीछे है।
कांग्रेस दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में है। भारत को आजादी दिलाने और स्वतंत्र भारत में लंबे समय तक शासन करने का श्रेय उसे है। लेकिन उसकी देखादेखी पिछले चार-पांच दशक में क्या हुआ है? देश की लगभग सभी प्रादेशिक पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। कोई बाप-बेटा पार्टी है तो कोई भाई-भाई पार्टी। कोई बाप-बेटी पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी। इन पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। इनकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है। इनका मूल आधार या तो जाति है या मजहब। अपने-अपने प्रांतों में ये पार्टियां सत्ता में हों या विरोध में, काफी शक्तिशाली हैं। लेकिन ये अपना गठबंधन बना लें और कांग्रेस को अपना नेता भी मान लें तो क्या इनकी सरकार चल पाएगी?
यदि कांग्रेस को देश के लोकतंत्र की चिंता होती तो सबसे पहले वह कांग्रेस के अध्यक्ष, महासचिवों और कार्यसमिति के सदस्यों के लिए खुले चुनाव करवाने का निर्णय करती। भारत की दोनों अखिल भारतीय पार्टियों- बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टी- के नेता बराबर बदलते रहे हैं या नहीं? हर पांच-दस साल में उनमें नया नेतृत्व उभर रहा है या नहीं? कांग्रेस ने केंद्र और राज्यों में अपनी करारी हार के बावजूद अपने नेतृत्व परिवर्तन का कोई विचार नहीं किया।
कांग्रेस के पास आज न तो नया नेतृत्व है और न ही कोई नीति। आजकल जिन इने-गिने प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें चल रही हैं, वे प्रांतीय नेताओं के दम पर चल रही हैं। देश का शायद ही कोई गांव, कोई शहर या कोई जिला ऐसा होगा, जिसमें आज भी कांग्रेस के कार्यकर्ता न हों। लेकिन वे क्या करें? नेता का निर्माण तो सशक्त नीति से भी हो जाता है। यदि पार्टी की कोई ठोस विचारधारा हो, नीति हो, स्पष्ट कार्यक्रम हो, अभियान हो तो लाखों-करोड़ों लोग उससे अपने आप जुड़ जाते हैं और अपने आप नया नेतृत्व उभर आता है।
लेकिन उदयपुर के चिंतन-शिविर से क्या ऐसे किसी अभियान का प्रारंभ हुआ? राहुल गांधी ने दावा किया कि कांग्रेस एकमात्र पार्टी है, जिसके पास विचारधारा है। कौन सी विचारधारा है? गांधीवाद? समाजवाद? गरीबी हटाओ? भारत को महाशक्ति बनाओ? भारत को महासंपन्न बनाओ? नहीं, ऐसी कोई विचारधारा तो बहुत दूर की बात है। कोई जबर्दस्त जन-अभियान ही कांग्रेस चला देती तो उसमें जान पड़ जाती। इतना लंबा किसान आंदोलन चला, लेकिन कांग्रेस बगलें झांकती रही। अब सोनिया गांधी कह रही हैं कि वे गांधी जयंती से ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकालेंगी। उनसे कोई पूछे कि भारत कहां से टूट रहा है, जिसे वे जोड़ना चाहती हैं? इस समय सारे अलगाववादी आंदोलनों की हवा निकली हुई है। यहां तक कि कश्मीरी अलगाववाद के तेवर भी ढीले पड़ गए हैं। अगर उदयपुर के शिविर में वास्तविक चिंतन होता तो कांग्रेस शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार जैसी ज्वलंत समस्याओं पर कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करती। इन क्षेत्रों में थोड़ी बहुत प्रगति जरूर हुई है, लेकिन बुनियादी काम होना बाकी है। इन राष्ट्रीय समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय हमारी पार्टियां भाड़े के रणनीतिकारों की शरण में चली जाती हैं ताकि किसी तरह वे चुनाव जितवा सकें।
राहुल गांधी ने लंदन जाकर भारत की राजनीति, सरकार, पत्रकारिता, संघवाद और विदेश मंत्रालय के बारे में जो टिप्पणियां की हैं, क्या किसी जिम्मेदार नेता को ऐसा करना शोभा देता है? राहुल का यह कहना कि भारत-चीन विवाद रूस-यूक्रेन युद्ध का रूप ले सकता है, अपने आप में हास्यास्पद है। कहां भारत और कहां यूक्रेन? भारत को एकात्म राष्ट्र कहने के बजाय विभिन्न राज्यों का संघ बताना क्या देश में अलगाववाद को बढ़ावा देना नहीं है?
पाकिस्तान से तुलना
राहुल ने भारत की तुलना पाकिस्तान से कर दी। क्या बेढब और आश्चर्यजनक बात है। क्या भारत में फौज ने कभी वैसा मर्यादा-भंग किया है, जैसा वह पाकिस्तान में करती रहती है? क्या भारत का प्रधानमंत्री पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की तरह भीख की झोली फैलाए घूमता है? यह कहना तो ज्यादती ही है कि भारत के अखबारों और टीवी चैनलों पर सरकार का 100 प्रतिशत कब्जा है।
बहरहाल, कांग्रेस के फूल और पत्ते तो झरते जा रहे हैं लेकिन उसकी जड़ें अभी भी हरी हैं। उसकी स्थापना अंग्रेज नेता ए.ओ. ह्यूम ने 1885 में की थी। लेकिन उसे आगे भी जिंदा रहना है तो नेता और नीति, दोनों में नयापन लाना बेहद जरूरी है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स