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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 23 Mar 2022 3:58 pm IST


चीन, अमेरिका में पक रही है कौन सी खिचड़ी?


कूटनीति का एक अद्भुत खेल अभी चीन और अमेरिका के बीच देखने को मिल रहा है। अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन और उनके चीनी समकक्ष यांग जीची के बीच बीते सोमवार, 14 मार्च 2022 को रोम में सात घंटे चली बातचीत का कोई ठोस ब्यौरा न तो चीन की तरफ से सार्वजनिक किया गया, न ही अमेरिका की तरफ से। अलबत्ता अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार ने वार्ता से पहले ही अपनी कड़वी बोली वाली ख्याति के अनुरूप बयान जारी किया था कि वह चीनी प्रतिनिधि को साफ शब्दों में समझाने जा रहे हैं कि यूक्रेन में जारी लड़ाई के मद्देनजर चीन ने अगर रूस को हथियार दिए और आर्थिक प्रतिबंधों को बर्दाश्त करने में उसकी किसी तरह से मदद की तो इसके बहुत बुरे नतीजे उसको भुगतने पड़ेंगे।

कूटनीति का स्याह-सफेद
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य यांग जीची भी अपने मधुर संभाषण के लिए नहीं जाने जाते। पिछले साल कनाडा में जेक सुलिवन से अपनी पहली वार्ता में उनकी कुछ बातों से अमेरिका को खासी तकलीफ पहुंची थी। लेकिन इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। अलबत्ता लंदन स्थित चीनी दूतावास की तरफ से एक बयान जरूर जारी हुआ कि अमेरिकियों को तो हर बात में ही नतीजे भुगतने की धमकी देने की आदत है। एक बात तय है कि चीनी कूटनीतिज्ञ कभी, किसी भी हाल में स्याह-सफेद में बात नहीं करते। कूटनीतिक वार्तालाप के दौरान सीधे इधर या उधर हो जाने की बात उनकी कन्फ्यूशियन ट्रेनिंग में सिखाई ही नहीं गई है। वार्ता से पहले जारी सार्वजनिक बयान में यांग जीची ने रूस-यूक्रेन युद्ध का कोई जिक्र ही नहीं किया। सिर्फ एक लाइन का बयान कि दिसंबर में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बीच हुई टेलीफोनिक वार्ता से निकले बिंदुओं पर अमल ही रोम में होने जा रही बातचीत का मकसद है। रही बात रूसियों को हथियार देने या न देने की तो अमेरिका स्थित चीनी राजदूत ने बयान जारी किया कि रूस ने उनके देश से हथियार मांगे ही नहीं। लिहाजा इस बारे में कोई बातचीत होने का सवाल कहां उठता है?

बहरहाल, अभी तो नहीं, लेकिन यूक्रेन की हवाई ताकत पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद उस पर नजर रखने और समस्याग्रस्त इलाकों पर वर्चस्व बनाए रखने का काम ड्रोन्स के जरिये संपन्न करना ही रूसियों के लिए तार्किक होगा। लेकिन इसके लिए जरूरी टेक्नॉलजी में वह ज्यादा समृद्ध नहीं है। फौजी जरूरतों में काम आ सकने वाली ड्रोन तकनीक अभी पूरी दुनिया में अमेरिका, चीन और कुछ हद तक इजराइल के पास ही मानी जाती रही है। ऐसे में बाकी चीजें तो नहीं लेकिन अच्छी-खासी तादाद में ड्रोन्स के चीन से रूस जाने की संभावना बनी हुई है।

आर्थिक दायरे में चीन-रूस रिश्तों को लेकर दो चीजें अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को परेशान कर रही हैं। एक तो तेल और गैस, जिसके पश्चिमी बाजार में हुई कटौती की भरपाई चीन और भारत से करने की योजना पर रूसी वाणिज्य मंत्रालय लगातार काम कर रहा है। अमेरिकी ऐसे किसी भी सौदे में जाने वाली हर कंपनी पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की बात कह रहे हैं। लेकिन भारत को भी अगर विश्व बाजार से 100 डॉलर प्रति बैरल या इससे ज्यादा महंगा तेल लंबे समय तक खरीदना पड़ गया तो वह प्रतिबंध की कीमत पर भी इसकी आधी कीमत वाला रूसी तेल क्यों नहीं खरीदेगा? भारत के बरक्स चीन के लिए तो यह मामला और भी सीधा है। एक तो रूस से तेल और गैस के आयात पर किराया उसे कम पड़ता है, दूसरे अमेरिका ने पिछले चार वर्षों में एक हजार से ज्यादा प्रतिबंध उस पर पहले से लगा रखे हैं। ये कुछ और बढ़ गए तो भी उसका ऐसा क्या बिगड़ जाएगा?

चीनियों के लिए रूसियों की आर्थिक मदद का दूसरा पहलू ज्यादा बड़ा है। यह रूस में आर्थिक लेनदेन की मौजूदा व्यवस्था को बिना किसी व्यवधान के जारी रखने से जुड़ा है। हम जानते हैं कि देशों के बीच मुद्रा के आदान-प्रदान की व्यवस्था ‘स्विफ्ट’ से रूस को कुछ ही दिन पहले बाहर किया जा चुका है। रूबल के मुकाबले डॉलर की कीमतें बेतहाशा बढ़ जाने के कारण रूस में बाहर से आयातित चीजें खरीदना बहुत मुश्किल हो गया है। ऐसे में रूसी मुद्रा को एक हद तक सपोर्ट इस बात से ही मिल सकता है कि किसी न किसी तरह के निर्यात के रूप में उसके पास चीन, भारत, खाड़ी देशों और अफ्रीका में कुछ जमीन बची हुई है। अमेरिकियों को डर है कि चीन की तरफ से ऐसा आश्वासन रूस को पहले ही मिल चुका है, वरना रूबल अब तक जमीन सूंघ रहा होता।

यहां भारत के लिए एक बात अलग से गौर करने की है कि पूर्वी लद्दाख में हुए टकराव के बाद से चीन पर बना अमेरिकी दबाव यूक्रेन में अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के फंसाव के चलते कहीं अचानक खत्म न हो जाए। कुछ कम तो यह पहले ही हो चुका है। पिछले बीस दिनों में एक बार भी अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने न ताइवान का जिक्र किया है, न ही शिनच्यांग में मानवाधिकारों को लेकर उनकी कोई चिंता दिखाई पड़ी है।

अपनी सुरक्षा अपने भरोसे
एक बात तय है कि भारत को अपनी सीमाओं की सुरक्षा खुद ही करनी होगी। इस काम में बाहरी मदद को एक हद से ज्यादा वजन नहीं दिया जा सकता। पिछले कुछ सालों से ऐसा भ्रम बना हुआ है कि जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान और चीन को काबू करने में अमेरिका की ओर से कुछ मदद मिल सकती है। करगिल और पुलवामा, दोनों ही मामलों में यह प्रस्थापना सही साबित हुई। लेकिन चीन से झगड़े में इसकी कोई विशेष भूमिका कभी नहीं रही और आगे शायद पाकिस्तान के मामले में भी न रहे। चीनी अभी रूस-अमेरिका तनाव के बीच अपना गेम अच्छे से खेल रहे हैं। हमें भी यूक्रेन युद्ध से जुड़े संकटों के बीच अपनी आर्थिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए अपना अलग रास्ता बनाना चाहिए।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स