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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 19 Oct 2022 5:19 pm IST


धर्म बदलने पर आरक्षण? टेढ़ा है मामला


जाति व्यवस्था के खिलाफ संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान, बौद्ध धर्म की दीक्षा पर विवाद के बाद दिल्ली के मंत्री राजेंद्र गौतम का इस्तीफा और बिहार में जातिगत जनगणना की तेज होती मुहिम के बीच धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों के आरक्षण के लिए आयोग के गठन से उलझनें बढ़ती जा रही हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 में सभी की बराबरी और अनुच्छेद 15 में धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव वर्जित है। लेकिन अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) के तहत सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिल सकता है।

पंचायत, नगरपालिका, विधानसभा, लोकसभा, शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों के बाद अब न्यायपालिका, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग का विस्तार होने लगा है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) को 10 फीसदी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में मामला लंबित है तो महिला आरक्षण के लिए भी सरकारें फैसला लेने लगी हैं। वहीं, आरक्षण की अधिकतम सीमा में 50 फीसदी का प्रतिबंध खत्म करने के लिए कर्नाटक जैसे राज्यों की पहल से विवाद बढ़ सकता है। आइए समझते हैं कि आरक्षण को लेकर अब तक क्या-क्या हुआ हैः

धर्म परिवर्तन के बाद दलितों को आरक्षण मिलने का मुद्दा आर्यन खान की गिरफ्तारी के बाद गरमाया था। नवाब मलिक ने आरोप लगाया था कि समीर वानखेड़े ने मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के बावजूद दलित आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी हासिल की।
किसी जाति को राष्ट्रपति के आदेश से अनुसूचित जाति (एससी) में शामिल किया जाता है। जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता को हिंदू धर्म की कुरीति माना जाता है। संविधान (एससी) आदेश 1950 के अनुसार सिर्फ हिंदू धर्म के दलितों को ही आरक्षण का लाभ मिलता है।
पहले पिछड़ा वर्ग आयोग (केलकर समिति) की रिपोर्ट के बाद 1956 में सिखों और 1990 में बौद्ध धर्म के लोगों को एससी के दायरे में शामिल कर लिया गया। उसके बाद से मुस्लिम और ईसाई धर्म में धर्मांतरित लोगों को दलित आरक्षण के दायरे में लाने की मांग होने लगी।
आरक्षण के पैराकारों के अनुसार, धर्म परिवर्तन के बावजूद दलितों का पिछड़ापन खत्म नहीं हुआ इसलिए धर्म के आधार पर भेदभाव असंवैधानिक है, जबकि विरोधियों के अनुसार मुस्लिम और ईसाई धर्म में जाति व्यवस्था नहीं होती, इसलिए उन्हें एससी के दायरे में लाना ठीक नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में 2004 से ही कई मामले चल रहे हैं। पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यक आयोग की मई 2007 में धर्म के बजाय सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की सिफारिश हुई थी। आयोग के एक सदस्य ने मुस्लिम और ईसाई धर्म के लोगों को दलित आरक्षण के दायरे में लाने का विरोध किया था।
केंद्र सरकार ने नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि मतांतरित दलितों के आरक्षण के बारे में पुराने आयोगों की रिपोर्टों के बजाय नए अध्ययन की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2022 में सरकार से फिर जवाब मांगा था। उसके बाद जांच आयोग अधिनियम 1952 की धारा 3 के तहत 6 अक्टूबर को सरकार ने तीन सदस्यीय आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी।
इस आयोग के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन हैं। पूर्व आईएएस रवींद्र कुमार जैन और यूजीसी की सदस्य प्रो. सुषमा यादव इसके अन्य दो सदस्य हैं।
आयोग यह अध्ययन करेगा कि असमानता व भेदभाव झेलते आ रहे दलितों को अन्य धर्मों में मतांतरण के बाद संविधान के अनुच्छेद-341 के तहत अनुसूचित जाति का लाभ कैसे मिल सकता है? आयोग यह भी जांच करेगा कि धर्मांतरण के बाद रीति-रिवाज, परंपरा एवं सामाजिक दर्जे में मतांतरित दलित के आर्थिक और सामाजिक दर्जे में क्या बदलाव हुए।
आरक्षण समर्थकों के अनुसार आयोग की रिपोर्ट अगले आम चुनाव के बाद आने से फैसले में विलंब होगा। उनके अनुसार बौद्ध और सिख धर्म के लोगों को दलित आरक्षण के दायरे में लाने से पहले जांच आयोग के तहत किसी आयोग का गठन नहीं किया गया था।


संवैधानिक मुश्किलें
आरक्षण की अधिकतम सीमा में इस प्रतिबंध की वजह से अदालतों में अनेक कानूनी विवाद चल रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद-25 में हिंदू धर्म में सिख, जैन और बौद्धों को शामिल किया गया है। बौद्ध और सिख धर्म में अनुसूचित जाति की बड़ी संख्या है, और उन्हें आरक्षण का लाभ मिल रहा है। जैन धर्म के भीतर एससी वर्ग की संख्या नगण्य होने की वजह से उनकी तरफ से ऐसी कोई मांग नहीं हो रही। मतांतरित एससी को आरक्षण के इस विवाद से अल्पसंख्यकों की परिभाषा और लाभ पर नई बहस शुरू हो सकती है। भारत में धर्म के आधार पर अलग सिविल कानून हैं। मुस्लिम धर्म के लिए पर्सनल लॉ हैं और समान नागरिक संहिता पर सहमति नहीं है तो फिर जातिगत आधार पर आरक्षण के दायरे में मुस्लिम और ईसाई धर्म के लोगों को बाहर रखना कैसे गलत माना जा सकता है?

धर्मांतरण को बढ़ावा?
50 फीसदी के प्रतिबंध के बावजूद आरक्षण के दायरे में नए लोगों को शामिल करने से वंचित वर्ग को वांछित लाभ नहीं मिल पा रहा। मुस्लिम और ईसाई धर्म में आरक्षण का लाभ मिलने से हिंदू धर्म के दलित लोगों को नुकसान होने पर अंतरजातीय विवाद बढ़ सकते हैं। इस बीच कई राज्य धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बना रहे हैं। धर्मांतरण के बाद आरक्षण का लाभ मिलने की अनुमति मिली, तो धर्म परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है। धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है, लेकिन इस बारे में कानून में स्पष्टता नहीं है। धर्म परिवर्तन के बावजूद लोग अपना नाम नहीं बदलते और आरक्षण का लाभ लेते रहते हैं। ऐसे मामलों पर रोक लगाने के लिए भी साफ कानूनी प्रावधान नहीं हैं। आयोग की रिपोर्ट के बाद ऐसी अनेक कानूनी विसंगतियों पर सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट में नए सिरे से बहस शुरू होगी। 

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स