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• Thu, 27 Jun 2024 12:27 pm IST


कुछ राहें मुश्किल ही रहें तो बेहतर


पहाड़ से पथर गिरने का खतरा है, संभल कर निकलें। ऋषिकेश से आगे बढ़ते ही इस तरह की चेतावनी लिखे बोर्ड दिखने शुरू हो जाते हैं, जो पूरे बद्रीनाथ राजमार्ग पर जगह-जगह लगे दिखे। यानी अगर आप इस रास्ते से जा रहे हैं तो अपने जोखिम पर ही गुज़रें। ऊपर से कभी भी कोई बड़ा पत्थर गिर सकता है।

पिछले हफ्ते यहां से गुज़रते वक्त हमारी गाड़ी पर भी कई जगह ऊपर से पत्थर के टुकड़े गिरे। कई जगह बड़े भारी पत्थर भी गिरे दिखे, जिन्होंने आधी सड़क ब्लॉक कर दी थी। एक लेन से ही गाड़ियां निकलने के कारण उन जगहों पर लंबा जाम लग गया। गनीमत रही कि इस भूस्खलन की चपेट में कोई नहीं आया। हालांकि हमसे पांच दिन पहले यहां से गुज़रने वाले दो प्रवासी भारतीय इतने खुशकिस्मत नहीं थे। न्यूयॉर्क से अपने कई साथियों के साथ आए ये लोग बद्रीनाथ की यात्रा कर लौट रहे थे। रूद्रप्रयाग से सात किमी दूर नरकोटा में पहाड़ से एक बड़ा सा बोल्डर गिरकर इनकी ट्रैवलर में घुस गया, जिसकी चपेट में ये दोनों आ गए।

पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश सहित ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्तराखंड में चार धाम यात्रा को सुगम बनाने के लिए बन रही ऑल वेदर रोड की वजह से बड़े पैमाने पर पहाड़ों की कटाई हो रही है। सड़कें चौड़ी करने के लिए पूरे रास्ते में पहाड़ों को खोद डाला गया है। इसमें शक नहीं कि रास्ते काफी चौड़े और आरामदायक हो गए हैं लेकिन इसने एक बड़ी समस्या पैदा कर दी है। आसान ड्राइव की वजह से अब हर कोई अपनी गाड़ी से चार धाम की यात्रा को निकलने लगा है। ट्रैफिक के अत्यधिक दबाव के कारण सड़कों के धंसने का खतरा और बढ़ गया है।

रूद्रप्रयाग तक गाड़ियों की संख्या बहुत अधिक रहती है क्योंकि इस पर तीन पवित्र तीर्थों को जाने वाला ट्रैफिक एक साथ चलता है। बद्रीनाथ के साथ ही केदारनाथ और हेमकुंड साहिब जाने का यही रास्ता है। रूद्रप्रयाग से इनके रास्ते अलग होने के बाद ही सड़क पर थोड़ी राहत मिलती है। पहाड़ों को काट-काट कर नंगा कर दिया गया है तो वहां गर्मी भी काफी बढ़ गई है। जिस गर्मी से बचने के लिए लोग हिल स्टेशन का रुख कर रहे हैं, वहां जाकर भी वैसी ही तपन से पाला पड़ रहा है।

उत्तराखंड में कुछ स्थानीय लोगों से बात हुई कि हाइवे बनने से काफी यात्री और पर्यटक आने लगे हैं तो कारोबार अच्छा चल रहा होगा और रोज़गार के अवसर भी बढ़े होंगे। अधिकांश लोग इससे बहुत खुश नहीं दिखे। उनका मानना है कि इतने अधिक निर्माण कर पहाड़ खोखले करते जाना यहां के पर्यावरण के लिए ठीक नहीं।

पर्यावरणविद भी लगातार आगाह कर रहे हैं। पिछले साल जोशीमठ से लेकर कर्णप्रयाग तक ज़मीन धंसने और मकानों में दरार आने की घटनाएं सामने आईं। उसके बावजूद जिस तरह हज़ारों गाड़ियों को वहां जाने दिया जा रहा है, वह कभी भी बड़ी आपदा को बुला सकता है। पिछली नवंबर में यमुनोत्री राजमार्ग पर सिलक्यारा सुरंग हादसे का उदाहरण हमारे सामने है, जिसमें काम करने वाले 41 श्रमिक 17 दिन तक अंदर फंसे रहे थे।

दुर्गम पर्वतीय स्थलों तक पहुंच आसान बनाना क्या सही है? कठिन चढ़ाई कर वहां तक पहुंचने का रोमांच ही अलग था। अब चंद घंटों का सफर रह जाने से हम वहां भीड़ ही बढ़ा रहे हैं। क्या हमारे पहाड़ इतना बोझ सहन करने के लिए तैयार हैं। अमरनाथ और केदारनाथ त्रासदियों को इतनी जल्दी भुला देना घातक हो सकता है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स