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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 13 Jan 2023 5:00 pm IST


सवारी से ज्यादा घाटा क्यों ढो रही है मेट्रो


हाल ही में दिल्ली मेट्रो ने अपने दो दशक की यात्रा पूरी कर ली। कोलकाता मेट्रो को छोड़ दें तो मेट्रो अब दिल्ली सहित देश के डेढ़ दर्जन शहरों में 733 किमी की दूरी तय कर रही है। इनमें रोजाना 85 लाख लोग सफर कर रहे हैं। इस समय अलग-अलग शहरों में कुल 1718 किमी मेट्रो लाइन बिछाने को मंजूरी मिल चुकी है, कई पर निर्माण कार्य जारी है। मगर आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली छोड़ किसी भी शहर की मेट्रो अपने ऑपरेशनल खर्चे भी नहीं निकाल पा रही है।

गलतियां अनगिनत

दिल्ली मेट्रो अपना ऑपरेशनल खर्च इसलिए निकाल पा रही है क्योंकि उसे यहां रोजाना औसतन 50.65 लाख सवारियां मिल रही हैं। फिर भी लोन, ब्याज वगैरह मिलाकर दिल्ली मेट्रो भी शुद्ध घाटे में ही है। बाकी शहरों की मेट्रो भी अपने खर्चे लायक पैसा नहीं जुटा पा रही हैं। आखिर क्यों? इससे जुड़े कुछ पहलुओं पर एक नजर डालना ठीक रहेगा।

2017 में ही केंद्र सरकार ने मेट्रो निर्माण का नया पैमाना तय किया था। तसबे डीटेल्ड प्रॉजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में बताया जाने लगा कि मेट्रो कैसे अपने खर्च निकालेगी, कितनी आमदनी होगी, कैसे लोन और ब्याज चुकता होगा और भविष्य में कैसे ट्रेन-ट्रैक रिप्लेसमेंट होगा।
इस डिटेल प्रॉजेक्ट रिपोर्ट के बावजूद देश की कोई भी मेट्रो ऑपरेशनल और बाकी खर्चों लायक पैसा नहीं कमा पा रही। इसकी सबसे बड़ी वजह है गलत आकलन। संसद की स्थायी समिति ने भी डीपीआर की खामियों की ओर ध्यान दिलाया है।
डीपीआर के गलत अनुमान का सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली की एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन है। इसकी डीपीआर में कहा गया था कि 2010 में लाइन चालू होगी तो रोजाना 40 हजार पैसेंजर सफर करेंगे।
उस वक्त शहरी विकास मंत्रालय के जॉइंट सेक्रेटेरिएट के ऑफिसर ने डीपीआर के आकलन को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया बताया था। वह सही थे।

स्थायी समिति के आंकड़े देखें तो यही हाल लखनऊ, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नै, कोलकाता और कोच्चि मेट्रो का भी रहा है। इन सभी मेट्रो में इतने यात्रियों ने सफर नहीं किया, जितना डीपीआर में आकलन किया गया था।
फिर मेट्रो प्रॉजेक्टस के साथ सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें किसी भी स्तर पर जवाबदेही नहीं है। एक साथ इतने डीपीआर गलत साबित हुए हैं फिर भी उसके लिए अब तक कोई जवाबदेही या जिम्मेदारी तय करने की व्यवस्था नजर नहीं आती।
डीपीआर बनाने वाले यह दावा जरूर कर सकते हैं कि फर्स्ट और लास्ट माइल कनेक्टिविटी बेहतर न होने की वजह से पैसेंजर कम मिले। लेकिन यह जिम्मेदारी भी राज्य सरकार की होती है। मेट्रो प्रॉजेक्ट के वक्त वह पैसेंजर की व्यवस्था का वादा करती है।
मेट्रो प्रॉपर्टी डिवेलपमेंट और विज्ञापन के जरिए आमदनी पर ध्यान नहीं देती।
इस वक्त लखनऊ मेट्रो की आमदनी का 73 फीसदी, चेन्नै का 62 और कोच्चि का 60 फीसदी हिस्सा यात्री किराए से आता है। अगर किराए से ही सभी खर्चे पूरे करने की कोशिश हुई, तो मेट्रो हमेशा भारी घाटे में रहेगी। यह खतरा हमेशा बना रहेगा कि किराया सीमा से अधिक बढ़ा तो यात्री कम हो जाएंगे। ऐसे में तो किसी भी मेट्रो की आमदनी नहीं बढ़ेगी।
वोट गेम

इतने शहरों में घाटा ढोती मेट्रो के बावजूद हर राज्य सरकार अपने शहरों में मेट्रो लाने की होड़ में जुटी है। वास्तविकता यह है कि मेट्रो का मतलब मास रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम है, यानी भीड़भाड़ वाले शहरों में ट्रांसपोर्ट के लिए ही यह है। लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए कई शहरों में तो 10 से 15 किमी तक की मेट्रो लाइनें बिछाई जा रही हैं। नतीजतन पार्टियों को वोट भले मिल जाएं, मगर अधिकांश शहरों में मेट्रो को पर्याप्त यात्री नहीं मिलने वाले।  

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स