आईसीएमआर यानी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने नई गाइडलाइंस जारी कर डॉक्टरों को सलाह दी है कि साधारण बुखार, खांसी में ऐंटीबायॉटिक दवाएं ना प्रिस्क्राइब करें। इन गाइडलाइंस को एएमआर गाइडलाइंस कहते हैं। यह फोर्थ ईयर के एमबीबीएस छात्रों को फार्माकोलॉजी के चैप्टर में पढ़ा दी जाती है। फिर से यह गाइडलाइन क्यों बनाई क्यों गई? पहले बनी गाइडलाइन का कितना पालन हो रहा है, इन पर विचार करने की जरूरत है।
आईसीएमआर अभी जो गाइडलाइन लेकर आया है, उसकी वजह यह है कि 2015 में वर्ल्ड लेवल पर एक एक्शन प्लान की बात हुई थी।
2017 में इंडिया ने अपना डेटा प्रोड्यूस किया था कि हम ऐंटीबायॉटिक्स के इस्तेमाल के लिए ऐसी गाइडलाइन और नैशनल ऐक्शन प्लान बना रहे हैं। इसके लिए 2021 तक 5 साल की अवधि मांगी गई थी।
इन 5 सालों में ऐंटीबायॉटिक रेजिस्टेंस प्लान पर कितना काम हुआ है, यही बताता है कि आईसीएमआर को गाइडलाइन निकालने की जरूरत क्यों पड़ी? 2022 में उन्होंने जो गाइडलाइन निकाली है, वह चेताने के लिए निकाली है। पर किनको चेताना चाहते हैं ये?
ऑर्गनाइज्ड मेडिकल हेल्थ केयर सेक्टर में डॉक्टर्स पॉलिसी के मुताबिक चलते हैं। लेकिन क्या ये डॉक्टर पूरे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं?
आम तौर पर झोला छाप लोग धड़ल्ले से कोई भी ऐंटीबायॉटिक लिख रहे हैं। जिसका कोई कंट्रोल नहीं, लेखा-जोखा नहीं।
सबका मिलाजुला असर यह है कि जब ऐंटीबायॉटिक कंट्रोल पॉलिसी पूरे देश में लागू नहीं है, तो आप गाइडलाइन निकाल सकते हैं दिखाने के लिए कि हो गया। आप कुछ तो कर रहे हैं, चाहे कागज पर ही सही।
समस्या की जड़
भारत में ऐंटीबायॉटिक्स के साथ अगर समस्या समस्या आई है तो उसकी जड़ यहां है-
जब कोरोना आया था, तब उसमें एजिथ्रोमाइसिन, हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन जैसी दवाओं का दुरुपयोग हुआ। बाद में कई मेडिकल रिपोर्टें आईं, जिनमें बताया गया कि इसका चलाना जरूरी नहीं था, यहां तक कि अभी भी हानिकारक है।
हिंदुस्तान में पहले से ही अनगिनत ऐंटीबायॉटिक, ऐंटीफंगल दवाइयां चल रही हैं। कॉमन फ्लू में भी ऐंटीबायॉटिक दे दी जाती है।
फिर हिंदुस्तान में हर इंसान अपने को डॉक्टर समझता है। वह गूगल पर पढ़ता है, दो डोज खाता है। आम तौर पर वायरल फ्लू दो दिन में खत्म हो जाता है। वह ऐंटीबायॉटिक वहीं बंद कर देता है।
कल्पना करिए कि उसे वायरल फ्लू था, लेकिन साथ में कुछ बैक्टीरिया भी थे। ऐसे बैक्टीरिया दो दिन के ऐंटीबायॉटिक के बाद रेजिस्टेंट हो जाएंगे। फिर जब वे किसी और को इन्फेक्ट करेंगे, तो वहां उसी ग्रुप की ऐंटीबायॉटिक काम नहीं करेगी।
दूसरी वजह है किसी को भी दवा मिल जाना। ओवर द काउंटर परचेजिंग। लोगों को बगैर डॉक्टरी नुस्खे के दवा मिल जाती है। और तीसरी वजह हैं झोला छाप डॉक्टर या कंपाउंडर।
धरती पर बहुत कम ही देश ऐसे हैं, जहां इस तरह से बिना किसी पॉलिसी के ऐंटीबायॉटिक इस्तेमाल की जाती है। मगर आईसीएमआर ने गाइडलाइन निकाली है ऑर्गनाइज्ड सेक्टर के लिए, जिसके डॉक्टर आमतौर पर ऐसा नहीं करते हैं।
दिशा तो दें पहले
इसी गाइडलाइन में है कि कम्यूनिटी एक्वायर्ड निमोनिया के लिए 5 दिन और अस्पताल से हुए निमोनिया के इंफेक्शन के लिए 8 दिन की ऐंटीबायॉटिक दें। कम्युनिटी एक्वायर्ड निमोनिया, मतलब ऐसे बैक्टीरिया जिनको ऐंटीबायॉटिक का एक्स्पोजर कम मिला हो। हॉस्पिटल एक्वायर्ड निमोनिया मतलब अस्पताल में रहते हुए निमोनिया हुआ, खूब एक्सपोजर मिला। ऐसे में ऐंटीबायॉटिक लंबे समय तक, मतलब 8-10 दिन तक दी जाती है। यह बिलकुल ठीक है। लेकिन गाइडलाइन में कहा गया कि कल्चर करें, प्रोकैल्सीटोनिन क्यू टेस्ट देखें और एक्स-रे करें। अब एक्स-रे तो हर जगह है। लेकिन गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ, आइसीएमआर देखे कि क्या कल्चर या प्रोकैल्सीटोनिन टेस्ट भारत में हर जगह होता है? निमोनिया का हम कल्चर टेस्ट भेजें कि कौन सी ऐंटीबायॉटिक देनी है, तो क्या हिंदुस्तान के किसी गांव में कल्चर टेस्ट हो जाएगा? कहने का मतलब है गाइडलाइन जब बनाते हैं, दिशा-निर्देश देते हैं तो दिशा भी दें और निर्देश भी दें। दिशा आपके पास है नहीं, निर्देश आप दे रहे हैं तो ये फेल हो जाएगा।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स