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DevBhoomi Insider Desk
• Sat, 5 Mar 2022 12:05 pm IST


रूस से अलग खड़ा क्यों दिखना चाहता है चीन


लेखकः सैबल दासगुप्ता
शी चिन फिंग अक्सर व्लादिमीर पुतिन को अपना बेस्ट फ्रेंड बताते रहते हैं। लेकिन बीते शनिवार जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस दोस्ती की परीक्षा की घड़ी आई तो उन्होंने ठीक वही किया जो नरेंद्र मोदी ने किया। शी और मोदी दोनों तटस्थ रहे, न अमेरिका को सपोर्ट किया और न ही रूस को। मामला उस निंदा प्रस्ताव का था, जो अमेरिका यूक्रेन पर रूसी हमले के खिलाफ लाया था। बहुतों को उम्मीद थी कि बड़ी शक्तियों में रूस का सबसे करीबी दोस्त होने के नाते चीन प्रस्ताव को वीटो करने में उसके साथ खड़ा होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रस्ताव तभी गिरा, जब रूस ने उसे वीटो किया। दिलचस्प यह कि चीन और भारत दोनों ने तटस्थ रहने का कारण भी बिल्कुल एक सा बताया। दोनों का कहना था कि वे कूटनीतिक बातचीत के दरवाजे बंद नहीं करना चाहते, जो कि उनके मुताबिक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निंदा प्रस्ताव पारित करके रूस को कोने में धकेलने की कोशिशों से बंद हो सकते थे।

दुश्मन नंबर वन
बात सही थी। अचरज की बात है कि लोकतंत्र के हिमायती पश्चिमी देश यह नहीं समझ पाए। लेकिन एक अहम अंतरराष्ट्रीय मसले पर भारत और चीन का सहमत होना भी अपने आप में दुर्लभ घटना है। हालांकि यूक्रेन में फंसे अपने नागरिकों की चिंता जैसे एकाध मुद्दों को छोड़ दिया जाए तो दोनों देशों के लिए इसके कारण बिल्कुल अलग-अलग हैं। रूस और चीन दोनों तानाशाही शक्तियां हैं और दोनों में अमेरिका के खिलाफ साझा अविश्वास है। दोनों ही देश संयुक्त राष्ट्र की अगुआई वाले संस्थानों में तालमेल बनाए रखते हुए काम करते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में समस्याओं से जूझने में एक-दूसरे की मदद भी करते हैं। समझा जाता है कि पुतिन ने यूक्रेन संबंधी अपनी योजनाओं पर शी चिन फिंग से चार फरवरी को चीन यात्रा के दौरान ही विचार-विमर्श कर लिया था। यह बाद के बयानों से भी स्पष्ट हुआ, जिनमें रूस ने कहा कि वह ताइवान मसले पर चीन का समर्थन करेगा।

प्रेक्षकों का मानना है कि ताइवान दूसरा यूक्रेन बनने वाला है क्योंकि चीन कहता रहा है कि वह ताकत के बल पर उसे अपने कब्जे में लेने को तैयार है। चीन मानता है कि ताइवान उसका अपना ही एक प्रांत है, जबकि ताइवान का अपना अलग झंडा ही नहीं अपनी सेना और अपनी करंसी भी है। वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था है। ताइवान मसले पर चीन को रूस का समर्थन यूक्रेन मामले में पेइचिंग में बनी आपसी सहमति का ही एक हिस्सा है।

दोनों देशों के बीच सालाना 147 अरब डॉलर का व्यापार होता है। चीन को सीमा पार से रूस की गैस की जरूरत है। शी और पुतिन ने हाल ही में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके मुताबिक अगले 30 वर्षों तक चीन को एक अन्य पाइपलाइन से अतिरिक्त गैसों की आपूर्ति होनी है। यह मॉस्को के लिए बहुत बड़ी मदद है, जो पश्चिमी प्रतिबंधों की वजह से अपना माल बेचने में असमर्थ है।

तो क्या चीन आखिरी पलों में अचानक ढीला पड़ गया है या रूस ही यूक्रेन में सैन्य कार्रवाई करते हुए उसकी अपेक्षाओं से भी आगे बढ़ गया? इतना आगे कि उसके लिए स्थिति असुविधाजनक हो गई है?

चीनियों के बारे में माना जाता है कि वे निकट भविष्य की अच्छी समझ रखते हैं और दीर्घकालिक योजनाएं बनाने में भी निपुण होते हैं। लेकिन इस बार वे गच्चा खा गए। उन्हें न तो पुतिन के इस तरह यूक्रेन में चढ़ आने का अंदाजा था और न ही पश्चिमी देशों के रूस के खिलाफ गोलबंद होने का। चीन इस समय तमाम तरह के प्रतिबंध झेलते, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़े रूस के साथ खड़ा नहीं दिखना चाहता। इस समय रूस की साइड लेना कूटनीतिक और आर्थिक दोनों लिहाज से काफी महंगा पड़ सकता है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा ट्रेडर है। फंड ट्रांसफर के लिए स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशल टेलिकम्युनिकेशंस) सिस्टम के अबाध उपयोग की उसे सबसे ज्यादा जरूरत है। रूस पर लगी पाबंदी चीन को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं करेगी, लेकिन ब्लैकलिस्टेड रूसी बैंकों के साथ लेन-देन उसे कड़ी निगरानी में ला सकता है। चीन हर हाल में इससे बचना चाहेगा। जिस देश की 254 कंपनियां अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड हों, जाहिर है उसके लिए दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है। खासकर इसलिए भी कि इन कंपनियों के बोर्ड एक्जिक्यूटिव्स का सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में अच्छा दखल है।

यह देखना दिलचस्प है कि कैसे चीन रूस के साथ अपना जुड़ाव कम करते हुए और राजनीतिक तौर पर अमेरिका का विरोध जारी रखते हुए गुटनिरपेक्षता की राह पर चलने को मजबूर हो रहा है। यह बात भी है कि चीन अपने इस रुख पर कायम रहना चाहता है कि किसी देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का किसी भी स्थिति में उल्लंघन नहीं होना चाहिए। हांगकांग, शिनच्यांग और तिब्बत पर उठने वाली विदेशी आवाजों को शांत करने के लिए वह इसी तर्क का इस्तेमाल करता रहा है।

संतुलन की कोशिश
मगर इसके साथ ही वह रूस की इस चिंता में शामिल है कि यूक्रेन को सदस्यता देकर नाटो अपना विस्तार करने की कोशिश कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में चीनी प्रतिनिधि ने दो परस्परविरोधी विचारों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हुए कहा, ‘यूक्रेन को पूरब और पश्चिम के बीच सेतु होना चाहिए, बड़ी शक्तियों के बीच टकराव की चौकी नहीं।’

काफी कुछ इस पर निर्भर करता है कि यूक्रेन में आगे कैसी स्थिति बनती है और रूस आर्थिक पाबंदियों से कैसे निपटता है। इन हमलों ने यह दर्शाया है कि रूस को आर्थिक प्रतिबंधों से ज्यादा चिंता इस बात की है कि नाटो यूक्रेन में न घुस आए। यूक्रेन प्रकरण के बाद चीन को न केवल रूस के साथ अपने संबंधों की समीक्षा करनी होगी बल्कि दुनिया में इसकी स्थिति को भी फिर से आंकना होगा।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स