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DevBhoomi Insider Desk
• Mon, 8 May 2023 10:52 am IST


क्या कर्नाटक से खुलेंगे आम चुनाव के पत्ते?


कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच जैसा हाई वोल्टेज घमासान देखने को मिल रहा है, वह सिर्फ प्रदेश की सत्ता हासिल करने को लेकर नहीं है। इस चुनाव में दोनों दल जिस तरह के प्रयोग कर रहे हैं, उनकी भी परीक्षा होनी है। राज्य की 224 विधानसभा सीटों पर वोटिंग 10 मई को होनी है और परिणाम 13 मई को आएंगे। माना जा रहा है कि जिस दल का प्रयोग सफल होगा, उसका असर आने वाले दिनों में दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों से लेकर अगले साल होने वाले आम चुनाव पर भी देखा जाएगा।

कांग्रेस ने इस बार चुनाव के बीच कर्नाटक में नया सामाजिक प्रयोग किया है। चुनाव के दौरान ही पार्टी ने जाति जनगणना की मांग के अलावा आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से अधिक करने का वादा किया। राज्य के पूर्व सीएम और पार्टी के सीनियर नेता सिद्धारमैया अब हर सभा में आरक्षण की सीमा को 75 फीसदी तक करने की बात दोहरा रहे हैं। राहुल गांधी भी राज्य में हो रही सभाओं में आक्रामक रूप से ओबीसी कार्ड खेल रहे हैं। दिलचस्प बात है कि मोदी सरनेम पर राहुल की टिप्पणी 2019 में कर्नाटक में ही सामने आई थी, जिसके बाद से बीजेपी उन पर ओबीसी के अपमान का आरोप लगा रही है। पार्टी के इस सामाजिक प्रयोग के पीछे उसकी अपनी राजनीतिक गणना है। राज्य में जातियों के समीकरण बहुत मायने रखते हैं और इसमें सभी का पहले से ही अपना-अपना हिसाब-किताब रहा है। जहां तक इस चुनाव की बात है, वोक्कालिगा समुदाय इस बार JDS के साथ दिख रहा है। इसमें बीजेपी और कांग्रेस को बहुत छोटा हिस्सा मिलने की संभावना है।

एकमुश्त वोटों पर है कांग्रेस की नजर

कांग्रेस को लगता है कि मुस्लिम और ईसाई वोट उसे एकमुश्त मिलेगा। लिंगायत वोट में कांग्रेस जरूर सेंध लगाने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसमें जो भी वोट आएगा- वह बोनस ही होगा क्योंकि लिंगायत समुदाय के लोग बड़ी तादाद में बीजेपी को वोट करते रहे हैं। ऐसे में पार्टी को वोट का बड़ा हिस्सा ओबीसी से ही मिलने की उम्मीद है। सिद्धारमैया खुद ओबीसी नेता हैं। इसके अलावा ‘जिसकी जितनी आबादी, उसको उतना हक’ के दांव से कांग्रेस दलितों को भी अपने पक्ष में करने में लगी हुई है। कांग्रेस को लगता है कि अगर इस चुनाव में यह दांव सफल रहा तो आम चुनाव तक इसी रणनीति के साथ मैदान में उतरा जाएगा। हाल के सालों में पूरे देश में बीजेपी की बड़ी सियासी जीत के पीछे ओबीसी वोट का बड़ा योगदान रहा है। नरेंद्र मोदी खुद को ओबीसी नेता के रूप में जनता के बीच पेश करते हैं। इस प्रयोग से पार्टी को इसकी काट भी मिलने की उम्मीद है। हालांकि इसके अपने जोखिम भी हैं। पार्टी जितने आक्रामक रूप से ओबीसी राजनीति करेगी, आरक्षण की सीमा को बढ़ाने की मांग करेगी, सवर्ण वोट पार्टी से छिटकते जाएंगे। लेकिन कांग्रेस के एक सीनियर नेता ने कहा कि अभी भी सवर्णों के वोट पार्टी को ना के बराबर मिल रहे है। ऐसे में इस प्रयोग से कुछ वोट बढ़ेंगे ही, घटेंगे नहीं।

बीजेपी ने भी इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव में एक खास राजनीतिक प्रयोग किया है। यह प्रयोग कमोबेश गुजरात मॉडल की तर्ज पर है। इसके तहत पार्टी चुनाव के दौरान ही पुराने नेतृत्व के मुकाबले नए नेतृत्व को सामने करती है। कुछ वक्त पहले पार्टी ने इसी मंशा से येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाकर एसआर बोम्मई को वहां का मुख्यमंत्री बनाया था। पार्टी ने टिकट वितरण में भी यही ट्रेंड कायम रखा। पूर्व सीएम और छह बार के विधायक जगदीश शेट्टार तक को पार्टी ने चुनाव में टिकट नहीं दिया। इस कारण शेट्टार बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लिंगायतों में शेट्टार का भी असर है। इसी तरह पार्टी ने दूसरे कुछ दिग्गजों को टिकट दिए। पार्टी ने संदेश दिया कि राज्य में वह नए नेतृत्व और नई पीढ़ी के साथ चुनाव में हैं। इसके पीछे बीजेपी की दोहरी सोच है। पहली, इससे वह एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को काउंटर कर लेगी। और दूसरी, पुराने और उम्रदराज हो रहे नेतृत्व के रहते हुए नया नेतृत्व खड़ा कर लेगी, ताकि आने वाले दिनों में भी अपनी स्थिति मजबूत बनाए रख सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने यह प्रयोग पिछले दिनों गुजरात विधानसभा चुनाव में सफलतापूर्वक किया था। अब यही प्रयोग इस बार कर्नाटक में हो रहा है।

पुराने चेहरों को हटाने पर जोर

एक स्थानीय बीजेपी नेता ने कहा कि दक्षिण की राजनीति इस लिहाज से थोड़ी अलग है और हर नेता के पास अपना वोट बैंक होता है। वे जिधर भी रुख करते हैं, वह वोट बैंक उधर ही जाता है। ऐसे में इस प्रयोग के अपने जोखिम हैं। लेकिन पार्टी नेतृत्व को लगता है कि इस प्रयोग में फायदा अधिक और नुकसान कम है। अगर कर्नाटक में बीजेपी का यह प्रयोग सफल हो गया तो आने वाले समय में पीढ़ी परिवर्तन की यह प्रक्रिया बीजेपी में और तेजी से देखी जा सकती है। साल के अंत में राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां भी सालों से बीजेपी का मुख्य चेहरा बदला नहीं गया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान डेढ़ दशक से पार्टी की अगुआई कर रहे हैं तो राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया भी लंबे समय से लीड कर रही हैं। माना जा रहा है कि कर्नाटक में प्रयोग सफल हुआ तो केंद्रीय नेतृत्व इस राजनीतिक प्रयोग का विस्तार इन दोनों राज्यों और अगले साल आम चुनाव में भी कर सकता है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स