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• Mon, 30 Oct 2023 2:08 pm IST


अपमान का असर


‘अपमान का इतना असर/ मत होने दो अपने ऊपर/

सदा ही/ और सबके आगे/ कौन सम्मानित रहा है भू पर’

भवानी दादा यानी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की इन पंक्तियों में अपमान से जलते मन को शांत करने की शक्ति है। लेकिन जीवन कविताओं की प्रेरणा पर कम ही चलता है। अपमान अगर बेवजह झेलना पड़े तो उसकी पीड़ा से उबरने के लिए अक्सर एक पूरा जीवन भी कम पड़ता है। ऐसे एक अपमान का नहीं, लेकिन उससे उपजी तकलीफ का साक्षी मैं भी रहा हूं। उन दिनों मैं मुंबई में एक सांध्य दैनिक से जुड़ा था। मेरी उम्र के कई जोशीले नौजवान पत्रकारिता में जगह बनाने की जद्दोजहद में जुटे थे। ऐसा ही एक युवक (जो बाद में मेरा सहकर्मी और मित्र भी बना) उस अखबार से जुड़ने की तमन्ना मन में लिए संपादक के सामने पेश हुआ। बकौल उस युवक के, मौखिक तौर पर अपनी इच्छा जताने के बाद उसने अपने सर्टिफिकेट उनकी ओर बढ़ाए। पर यह क्या? आम तौर पर अपने मीठे स्वभाव और विनम्र व्यवहार के लिए जाने जाने वाले संपादक जी ने वे सर्टिफिकेट हवा में उछाल दिए कि ले जाओ इन्हें और निकलो यहां से। हतप्रभ से खड़े उस युवक के मन पर जो जख्म उस दिन लगा, वह कभी भर नहीं सका। आज भी जब उन संपादकजी की सज्जनता के चर्चे होते हैं, उसके भिंचे होंठ अंदर की इस तकलीफ की गवाही दे देते हैं।

लेकिन अक्सर अनजाने भी हम दूसरों को अपमान का दंश दे देते हैं। कम से कम दो ऐसे मामले हैं जिनका अपराधी मैं अपनी नजरों में साबित हो चुका हूं। यह बात तब की है जब परिवार की जिम्मेदारी सिर पर आने के बाद पहली बार बेरोजगारी से साबका पड़ा था। छह महीने की वह बेरोजगारी बेहद तकलीफदेह थी। लेकिन उसी दौरान एक टेंपरेरी प्रॉजेक्ट से जुड़ना हुआ। उसमें कुछ लोगों के साथ उनकी हायर की हुई एक महंगी गाड़ी में मैं भी जा रहा था। पता नहीं कब एक परिचित युवक ने मुझे देखा, मेरा अभिवादन किया, पर मैं उसे नहीं देख सका। बाद में एक कॉमन फ्रेंड से की गई उसकी शिकायत मुझ तक पहुंची कि मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि उन जैसों को देखना भी पसंद नहीं करता। संयोग कहिए कि कुछ ही दिनों में वह शहर भी छूट गया। फिर कभी उस युवक से मुलाकात ही नहीं हुई कि उसे लगी चोट पर मरहम के दो बोल भी डाल सकूं। दूसरा मामला एक बहुत बड़ी शख्सियत का है, जिनसे मेरी मुलाकात और करीबी पत्रकारीय जिम्मेदारियों का नतीजा थी। उनकी जेनुइननेस ने गहरे प्रभावित किया, मगर उनके कॉज को अपनी पत्रकारिता का सक्रिय समर्थन न दे पाने की शर्मिंदगी मुझे उनका सामना करने से रोकती रही जिसे उन्होंने मेरी अवहेलना समझ लिया।

क्या मेरे उस मित्र से किए गए अपमानजनक व्यवहार के लिए भी अब स्वर्गीय हो चुके उन संपादक जी के पास ऐसा ही कोई स्पष्टीकरण होगा? जवाब इस जन्म में तो नहीं मिलना।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स