Read in App

DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 26 Apr 2023 12:46 pm IST


एक अज्ञात प्रेम कहानी


देवी गंगा के पृथ्वी पर आने का किस्सा जगत प्रसिद्ध है। सब जानते हैं कि भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न होकर धरती के जीवों के उद्धार के लिए आई। परन्तु पृथ्वी पर आकर गंगा ने महाराज शान्तनु को पतिरूप में क्यों वरण किया?

उन्होंने सात पुत्रों को जन्म देकर पानी में क्यों बहाया तथा आंठवें वसु को क्यों छोड़ दिया? इसके पीछे रहस्य क्या है? कहानी इक्ष्वाकु वंश की हैं, उसमें महाभिष नाम के एक प्रतापी राजा हुए थे । महाभिष एक बार देवताओं की सभा में उपस्थित थे, जिसमें देवनदी गंगा भी थी। महाभिष गंगा के रूप पर मोहित थे, गंगा भी । उस सभा में सारे श्रेष्ठ जनों की उपस्थिति के बावजूद वे एक दूसरे को एकटक निहार रहे थे।

प्रेम के विषय में परिचित है,

माया की सबसे मुखर अभिव्यक्ति प्रेम है। प्रेमियों को पता नहीं चलता है, माया का जाल गहराता है एवं वासना प्रेम पर हावी हो जाता है। स्वर्ग में पृथ्वी वासियों के वासना के लिए स्थान नहीं है। देवी गंगा का आंचल जमीन पर गिर गया था परंतु महाभिष ने अन्य देवताओं की भांति अपनी दृष्टि नीचे नहीं की, इसका अर्थ था कि अभी देवत्व पाने में कुछ सीढ़ियां बची रह गई थी। श्रम करना बचा था, सबक सीखने जरूरी थी। सबक सीखने का स्थल धरती है और ब्रह्मा ने दो प्रेमियों को शाप दे दिया। उन्हें शाप दिया कि मनुष्यलोक जाओ वहां जाकर पुण्य एकत्रित करो, तथा उसके बाद तुम दोनों स्वर्ग लोक में प्रवेश की पात्रता जुटा पाओगे।

धरती पर जाकर अब महाभिष एवं गंगा को कर्मों के द्वारा श्रेष्ठता की ऊंचाईयों को चढ़ना था। ऐसा लगता है कि स्वर्ग से पतन की कथा पुरानी है। नहुष के साथ भी यही हुआ था, वासना ने उन्हें मतिभ्रष्ट कर दिया और वे शची पर मोहित हो गए। महाभिष मर्यादा के नियम भूल गए तथा प्रेमवश अनुचित आचरण कर दिए। अब देवलोक में आकर इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रख पाए तो उन्हें वापस पृथ्वी पर लौटना था परन्तु लेकिन ब्रह्मा ने उन्हें इतनी स्वतंत्रता दी जिससे कि वे यह तय करें कि वे किस घर-परिवार का चुनाव कर सकें? किसको अपना पिता चुनें जिससे उनका भाग्य पथ निर्मित हो पाए?

महाभिष की आत्मा का ध्येय प्रेम की गलियों से गुजर कर उसके विभिन्न रंगों को देखकर पूर्ण बनना था। स्वर्ग लोक में जब वे गंगा को निहार रहे थे, उस समय उनका प्रेम आकर्षण से अभिभूत था परन्तु उस प्रथम सीढ़ी से आगे बढ़ता हुआ प्रेम किस प्रकार उन्हें क्रोध, उपेक्षा, रोष तथा क्षमा की सीढ़ियां पार कराता हुआ अपने लिए नए-नए सबक संजोता, यह खेल देखना तथा उसे करना, दोनों बचा हुआ था। प्रेम और विरह का स्वाद देखना तथा पुनः सत्यवती से प्रेम करने की शक्ति बटोरना बचा हुआ था। कहते हैं ना कि जीवन कभी किसी के लिए रुकता नहीं है।

लेकिन इन सभी शिक्षाओं को सीखते सीखते उन्होंने भारतवर्ष में कुरुक्षेत्र के बीज भी बो दिए। महाभिष धरती पर प्रतीप राजा के पुत्र बन कर आए। प्रतीप चन्द्रवंशी राजा थे। चन्द्रवंश में आगे चलकर कौरव-पाण्डव आए थे। महाभिष महाराज शान्तनु बने तथा गंगा उनकी पत्नी बनी। गंगा देवनदी हैं, अजन्मा, भगीरथ की पुकार पर आई थी, धरती पर महाभिष एवं गंगा मिले, महाभिष शान्तनु रूप में थे, वे अपने पूर्वजन्म की कथा भूल चुके थे, लेकिन जब गंगा से मिले तो आत्मा ने गंगा को पहचान लिया, उनके प्रति प्रबल खिंचाव हुआ तथा वे गंगा से विवाह कर लिए। गंगा ने अपने सात पुत्रों को जल में जन्म लेते बहा दिया।

शान्तनु इस घोर कृत्य को देखते तथा शान्त रहते। वे वचनबद्ध थे। विवाह पूर्व गंगा ने उनसे वचन लिया था कि वे उन्हें किसी भी कृत्य पर टोकेंगे नहीं, तथा यदि उन्होंने टोका तब गंगा उन्हें छोड़ कर चली जाएंगी। वास्तव में गंगा अपने सात पुत्रों की हत्या नहीं कर रही थीं, बल्कि उनके शाप का उद्धार कर रही थीं। वे वसु थे जिन्होंने महर्षि वशिष्ठ की कामधेनु रूपा नन्दिनी गौ को चुराने में प्रभास का साथ दिया था। शान्तनु को इतिहास मालूम नहीं था वे तो बस देख रहे थे की गंगा का कठोर हृदय द्वारा किया गया अमानवीय कृत्य और उसे प्रेमवश नजरअन्दाज करने की कोशिश कर रहे थे। सात बार ऐसा हुआ तथा शान्तनु का मन विदीर्ण हो गया। वे गंगा पर बिफर पड़े। अपने संतान की जीवन रक्षा की भीख मांगने लगे। गंगा ने उन्हें उनके वचन का स्मरण कराया तथा बोली, “अब हमारे रास्ते अलग होते हैं।’’

गंगा का आचरण भी उनका निजी निर्णय नहीं था। वे शापोद्वार कर रही थीं, सात वसुओं का। आंठवें वसु को जीवन पिता के हस्तक्षेप के कारण बच गया। इसमें भी पिता की ममता नहीं थी, बल्कि आंठवें वसु को दीर्घकाल तक पृथ्वी पर रहने का शाप मिला था, वे भीष्म कहलाए, लेकिन इन सबमें शान्तनु अनेकों बार प्रेम के कठिन गलियों से गुजरे धैर्य तथा अधैर्य के बीच झूले रोष एवं क्षमा के बीच तपे और गले तथा प्रेम के उन अध्यायों को पढ़ पाए जिसे महाभिष रूप में पढ़ना भूल गए थे। वासना सतही है परन्तु प्रेम भीतरी तौर पर हमें बदल देता है एवं कई बार इस बदलाव में इससे जुड़े हुए किरदारों का कर्म बंधन नष्ट हो जाता है जैसे सात वसु गणों का उद्धार हो गया।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स