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DevBhoomi Insider Desk
• Thu, 6 Apr 2023 10:50 am IST


दोस्ती वाला रिश्ता


निदा साहब कह चुके हैं, ‘मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह/ दोस्ती हर दिन की मेहनत है, चलो यूं ही सही।’ बात सही भी है, लिबासों की तरह रिश्ते भी तभी तक अच्छे लगते हैं, जब तक उनमें चमक बनी रहती है। दूसरे शब्दों में, जब तक रिश्ते में दोस्ती बनी रहती है। इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए हर दिन की मेहनत जरूरी होती है। रोज झाड़-पोंछ न करें तो रिश्ता समाप्त नहीं होता, लेकिन उसके अंदर की दोस्ती कुम्हलाने लगती है।

मगर मैं यहां बात रिश्तों के अंदर वाली दोस्ती की नहीं, दोस्ती वाले रिश्ते की करना चाहता हूं। निदा साहब तो अब हैं नहीं, वरना उन्हीं से पूछता कि जो दोस्ती का रिश्ता होता है उसमें भला मेहनत की क्या दरकार! वह तो खुद पूरी की पूरी दोस्ती है। अब नदी है, तो हम आप जब चाहें नदी में डुबकी लगाकर तरो-ताजा हो लेते हैं। पर नदी कहां जाए स्नान करके तरो-ताजा होने! यह न कहिए कि सागर से मिल ले जाकर। सागर से तो वह मिलती ही है एक दिन, लेकिन बशीर बद्र साहब फरमा चुके हैं कि ‘जहां दरिया समंदर से मिला, दरिया नहीं रहता।’ तो हमें या किसी को भी ऐसा स्नान थोड़े ही चाहिए कि हम, हम रह ही न जाएं। बहरहाल, असल सवाल अपनी जगह बरकरार है कि दोस्ती को ताजगी की जरूरत पड़े तो वह क्या करे। साफ-साफ कहूं तो किसी पुराने दोस्त के साथ रिश्ता मरने लगे तो क्या तरीका है उसे बचाने का।

सवाल फिर वही है कि आखिर ऐसी नौबत आए ही क्यों? दोस्ती अगर सच्ची है तो गिले-शिकवों के लिए ज्यादा गुंजाइश यूं ही नहीं रहती। ‘तुम इतने दिनों से नहीं मिले’ ‘तुमने मुझसे फलां बात शेयर नहीं की’, जैसी शिकायतें बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड के बीच भले मसला बने, दोस्ती की सार्थकता ही इस बात में है कि वह इन शिकायतों से ऊपर उठी हुई होती है। आप जानते हैं कि बात बड़ी होगी तो वह शेयर किए बिना नहीं रहेगा। यह आपकी नहीं, उसकी जरूरत है। अगर नहीं शेयर कर रहा तो कोई वजह होगी उसके पीछे। ऐसे ही इतने दिनों से नहीं मिला तो कोई मजबूरी रही होगी। मिलने की उसकी इच्छा को लेकर तो कोई संदेह होता नहीं।

कहते हैं, इस नश्वर संसार में कुछ भी अजर-अमर नहीं होता। ऐसे में दोस्ती की भी अमरता का इसके सिवा क्या मतलब हो सकता है कि वह हमारी जिंदगी के साथ ही खत्म हो, उससे पहले नहीं। पर कभी-कभार ऐसा होता है कि जीवन की लौ बुझने से पहले ही दोस्ती में विश्वास का आखिरी सिरा छूट जाता है। कोई आवाज नहीं होती, कोई धमाका नहीं होता, पर तड़प और तकलीफ की पूछिए मत। किसी भी उपाय से हम उसे बचाना चाहते हैं। लेकिन दोस्ती का भी सम्मान शायद इसी में है कि उसे जाने दिया जाए, दो मिनट के मौन के साथ, स्मृतियों के कोष को पूरी हिफाजत से सहेजते हुए।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स