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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 11 Nov 2022 2:27 pm IST


सीने में जलन, आंखों में तूफान सा इसलिए है...


सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यूं है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूं है

बीते दो दिनों से दिल्ली एनसीआर की हवाओं का वजन बढ़ गया है। वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एयर क्वॉलिटी इंडेक्स 500 के करीब है। लिहाजा, तमाम दूसरे दिल्लीवालों की तरह अब अपन के सीने में भी जलन है और आंखों में तूफान भी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अपनी यह पहली सर्दी है तो अगले दो महीनों में काफी कुछ झेलना होगा। गाजियाबाद के इंदिरापुरम से आईटीओ के बीच रोजाना 44 किलोमीटर की आवाजाही में कई बार सोचता हूं, दुनिया के इस सबसे प्रदूषित इलाके में लोग जिंदगी को जीने के लिए अपने गांव शहर से यहां आते हैं या फिर उसे कम करने के लिए।

इजिप्ट के शर्म अल शेख में 27वां जलवायु सम्मेलन शुरू हो रहा है। वहां इस बात पर फिक्र जताई जाएगी कि दुनिया के तापमान को आने वाले वक्त में डेढ़ डिग्री की बढ़ोतरी से नीचे कैसे रखा जाए? यह बहस हर साल होती है। विकसित और विकासशील देश आमने-सामने होते हैं। विकसित यानी जिन्होंने अपने धंधों को जमाने के लिए अंधाधुंध कोयला जलाकर कार्बन बढ़ाया। इससे दुनिया का तापमान पिछले करीब 100 साल में एक डिग्री से कुछ ज्यादा बढ़ चुका है। विकासशील यानी भारत जैसे देश। जहां अब भी करोड़ों लोगों तक डिवेलपमेंट नहीं पहुंचा है। उनके लिए जरूरी है कि बढ़िया सोलर तकनीक, नए उन्नत ईंधन और नई वैज्ञानिक खोजों की मुफ्त आमद। अगर नहीं मिलती तो फिर उन्हें और कोयला जलाना होगा बिजली के लिए। डीजल पेट्रोल की गाड़ियां चलानी होंगी। यह लड़ाई पिछली सदी में हुए पृथ्वी सम्मेलन से अब तक चल रही है। दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे पर दबाव बनाते हैं और इस दौरान समुद्र द्वीपीय देशों के समूह भर-भर आंसू रोते हैं कि उनके देशों का तो अस्तित्व ही खत्म होने वाला है क्योंकि वे तो डूबने वाले हैं।


बहरहाल इंटरनैशनल क्लाइमेट पॉलिटिक्स अपनी जगह। दिक्कत हमारे अपने देश की भी है। अब इंदिरापुरम से आईटीओ जाते वक्त रोजाना कुछ देर आते वक्त और कुछ देर जाते वक्त गाजीपुर के पास नाक बंद करनी पड़ती है। एक तो यहां कूड़े का ऊंचा पहाड़ है और साथ ही काटे गए जानवरों की भयानक दुर्गंध भी। साक्षात नर्क के दर्शन होते हैं जिसे आप नाक से महसूस भी कर सकते हैं। ऐसे कई कूड़े के पहाड़ हैं दिल्ली में। इन्हें देखकर शायर कवि दुष्यंत की यही लाइनें याद आती हैं कि हो गई है पीर पर्वत सी अब पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ,तेरे सीने में नहीं तो मेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। खैर हमारे आप के सीने में तो आग जलती ही है लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग की आग उन पर्वतों को पिघलाने में लगी है जिन्हें नहीं पिघलना चाहिए। हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। डरावनी शोध रिपोर्ट आती रहती हैं। गंगा यमुना जैसी मैदानी नदियों के पानी का श्रोत यही ग्लेशियर हैं। यह खत्म हुए तो उत्तर भारत का समूचा इकोसिस्टम खत्म हो जाएगा। अपने पत्रकारिता के करियर के शुरुआती दिनों में जिन खतरों को आगाह करती रिपोर्ट लिखी थीं, अब वह सच होने लगी हैं। बेमौसम की सूखी बारिश और ठंड और गर्मी साक्षात हैं। हालांकि हिमालय के पिघलने में अभी काफी वक्त लगेगा लेकिन आज हम नहीं सुधरे तो अगली पीढ़ी जरूर यह भी देख ही लेगी। बहरहाल सुधार की कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखती। दिल्ली को अगर देश की एक इकाई के तौर पर मॉडल मानें तो आप अंदाज लगाइए कि ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाने वाले सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट को लेकर यहां क्या हो रहा है। पक्ष और विपक्ष रोजाना एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि जिम्मेदारी उनकी है। कूड़ा इतनी बड़ी समस्या है कि इससे निपटने में राजनीति बीच में आनी ही नहीं चाहिए थी लेकिन सच आपके सामने है। शर्म अल शेख, इससे ठीक पहले ग्लासगो और इसके बाद दुबई में होने वाले जलवायु सम्मेलनों में भी दिल्ली जैसे झगड़े ही होते हैं। सबकी अपनी-अपनी राजनीति होती है। जिस तरह दिल्ली में हम-आप और जलवायु सम्मेलनों में टापू वाले देश रोते हैं, देर सबेर सारी दुनिया का यही हाल होने वाला है, अगर हम अब भी नहीं सुधरे तो। दिल्ली का एक्यूआई बढ़ने से स्कूलों की छुट्टी कर देना और काम धंधों को रोक देना फौरी उपाय हैं। जरूरतों को समेटना होगा, बहुत बड़े बदलावों की जरूरत है, ऐसे बदलाव जिन्हें शुरू करने की कोशिश डेमोक्रेसी में शायद ही कोई करे। बहरहाल देश के दिल दिल्ली से लेकर दुनिया के ज्यादातर शहरों की हालत खराब है। पाकिस्तान ने हाल ही में जैसी बाढ़ की तबाही देखी, वह अभूतपूर्व है। ऐसी मुसीबतें अब कभी भी कहीं भी आ सकती हैं। तसल्ली के लिए शहरयार का यह शेर और बात खत्म कि-

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूं है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स