गुरु नानक देव अपने प्रिय शिष्य मरदाना के साथ विंध्याचल की ओर जा रहे थे। एक दिन मरदाना को वन्य जाति के लोग पकड़कर ले गए। तब उनके यहां हर अष्टमी तिथि पर देवी को प्रसन्न करने के लिए नरबलि देने की प्रथा थी। वे लोग मरदाना को एक गुफा में ले गए, जहां भैरवी देवी का मंदिर था। उन्हें देवी के सम्मुख खड़ा कर रस्सी से बांध दिया और ढोल बजाते हुए नाचने लगे। नाच-गाना समाप्त होने पर उन्होंने मरदाना को मुक्त कर दिया। अब पुजारी उनके सम्मुख बरछी लेकर आया। वह उन पर वार करने ही वाला था कि एक शांत स्वर सुनाई दिया, वाहे गुरु! एक अनजान स्वर सुनते ही पुजारी थम गया। बात यह थी कि गुरु नानकदेव शिष्य मरदाना को तलाशते उस गुफा में पहुंच गए थे।
सरदार कोड़ा ने नानकदेव को देखा, तो कड़क कर बोला, ‘कौन हो तुम?’ नानकदेव ने शांत स्वर में कहा, ‘तुम्हारे ही जैसा प्रभु का एक बंदा।’ सरदार बोला, ‘मगर हमें तो राक्षस कहा जाता है।’ गुरु ने उसके शरीर पर स्नेहिल स्पर्श करते हुए कहा, ‘तुम राक्षस नहीं हो। तुम हो तो मानव, पर तुम्हारे कार्य अवश्य राक्षसों जैसे हैं।’ गुरुदेव ने प्रश्न किया, ‘क्या तुम्हारी यह देवी किसी मृतक के प्राण वापस दे सकती है?’ सरदार ने उत्तर दिया, ‘नहीं।’ ‘तो फिर किसी के प्राण लेने का तुम्हें क्या अधिकार है? मनुष्य को किसी के प्राण नहीं लेने चाहिए।’ गुरु नानकदेव की शांत वाणी ने उन लोगों पर जैसे जादू का सा असर किया। वे सब नतमस्तक हो गए और आगे कभी नर बलि न देने की प्रतिज्ञा की।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स