आज तोताराम और पत्नी का चाय लेकर कमरे में आना एक साथ हुआ. तोताराम के कंधे पर एक थैला लटका हुआ था. चाय लेते हुए बोला- टांग दूँ?
हमने कहा- यह कैसी भाषा है? यह ठीक है कि इस समय देश में आतंक और धमकी की भाषा ही अधिक चल रही है. कोई भी कभी भी किसी को भी पाकिस्तान जाने की धमकी दे देता है,कोई भी चुना हुआ जनता का सेवक सीधे-सीधे ठोकने और एनकाउन्टर का अल्टीमेटम दे देता, सुधरने का संकेत देता है और दो दिन बाद उसकी जीप नहीं सुधरने वालों पर चढ़ कर उनको सुधार देती है,
बोला- लेकिन टांग देने में क्या बुराई है? इसमें भाषा का क्या पतन है? ‘टांगना है’ तो पूछ लिया ‘टांग दूँ’? टांगने के लिए और क्या कहूँ?
हमने कहा- क्या तुझे इतना भी याद नहीं कि पिछले दिनों में कई बार मध्यप्रदेश के अतिउत्साही मुख्यमंत्री जी ने अपनी सक्षम और सुधारात्मक कार्यशैली में ‘गाड़ दूंगा’, ‘लटका दूंगा’ जैसे प्रेमपूर्ण इरादों का संकेत दिया है. पता नहीं, फांसी और गाड़ने का सामान गेंती-फावड़ा साथ ही लिए चलते हैं क्या?
और अब उन्हीं की लोकतांत्रिक सोच का अनुकरण करते हुए ग्वालियर के कलेक्टर कौशलेन्द्र सिंह जी ने सरकारी कर्मचारियों को यथासमय टीकाकरण का लक्ष्य प्राप्त करने के बारे में बोलते हुए कहा-लोगों के खेतों में जाओ, घरों में धरना दो, उनके पैर पड़ो, मगर टार्गेट पूरा करो. पूरा न होने की स्थति में ‘टांग देने’ का विकल्प दिया है. पढ़ा नहीं, समाचार था- कलेक्टर ने आपा खोया. हरियाणा में भी एक कलेक्टर ने पुलिसको किसानों का सिर फोड़ने की नेक सलाह दी थी.
बोला- शब्दों पर मत जा. अर्थ और व्यंजना को ग्रहण कर.नीयत पहचान. मैं तो तुझे साहित्य का जानकर समझता था लेकिन सब व्यर्थ.मुख्यमंत्री जी और कलेक्टर की कर्तव्यपरायणता को समझ.
हमने कहा- हाँ, ठीक वैसे ही जैसे मोदी जी के किसानों के प्रति प्रेम को गलत समझा गया.
बोला- और क्या? अगर बच्चा एक तरह से दवा नहीं लेता तो इसी और तरह से दी जाती है. तो अब यू पी के चुनावों के बाद फिर किसानों के कल्याण का लक्ष्य किसी और तरह से पूरा किया जाएगा. लेकिन कल्याण से कोई नहीं बच सकता.
हमने कहा- ठीक उसी तरह से जैसे मरे हुओं, कुम्भ में नहीं गए लोगों का भी कुम्भ में कागजों में टीकाकरण हो गया.
बोला- तो प्रभु, यदि मेरे इस थैला टांगने का अनर्थ समझ में आ गया हो तो यह थैला इस खूँटी पर टांग कर चाय पी लूँ?
हमने कहा- ठीक है, इसमें क्या पूछना है? यहाँ तुझे सर्वाधिकार हैं. टांग या टंग .हमारा तो यही कहना है कि विशिष्ट लोगों को चाहे वे मुख्यमंत्री हों या कलेक्टर भाषा में अपना ‘आपा’ नहीं खोना चाहिए.
बोला- ‘आपा’ खोने में क्या बुराई है? हमारे तो मनीषियों ने भी कहा है-
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
सो शालीन और अनुशासित पार्टी के नेता और उनसे प्रेरणा लेने वाले अधिकारी अगर ‘आपा’ खोते हैं तो बुरा क्या है? वे तो महान परंपरा को ही निभा रहे हैं.
सौजन्य से - नवभारत टाइम्स