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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 9 Nov 2022 4:01 pm IST


खट्टे-मीठे स्वाद के स्वागत का मौसम


पिछले हफ्ते हमारे यहां अयोध्या में एकादशी मनाई गई। पंचकोसी और चौदह कोसी परिक्रमा हुई, जिसमें लगभग पैंतीस-चालीस लाख लोगों ने हिस्सा लिया। अवध में एकादशी पूरी तरह से किसानों का त्योहार है। एकादशी से ही गन्ना कटना शुरू होता है, आंवले तोड़े जाते हैं। अक्टूबर-नवंबर हमारे यहां खट्टे-मीठे स्वाद के स्वागत का मौसम है। अब गांव-गांव से गुड़ पकने की खुशबू आने लगी है। कहीं सिंपल भेली बना रहे हैं तो कहीं गरी, सोंठ, छुहारे वाली मिक्स भेली। लहंटा अलग खींचा जा रहा है। खींच-खींचकर जब उसे भूरे से सफेद कर देंगे, तो कुछ लोग बांस के डंडे में लपेट कर अपनी साइकिल से गली-गली घूमेंगे और केवड़े से महकती चीनी की गुड़िया, बुढ़िया, फूल बनाकर बेचेंगे। फिर खांड भी बन रही है। ठंडे पानी में गुड़ नहीं घुलता, इसलिए खांड बनती है। भीषण गर्मी में जब कोई शहर से हमारे गांव आएगा, तो तुरंत चापाकल से ठंडा पानी निकाला जाएगा, और खांड घोलकर गन्ने का रस हाजिर किया जाएगा। जाड़े आने वाले हैं तो बड़की मौसी मूंगफली वाली पट्टी बनाने के लिए बड़ा थाल लेकर कोल्हू पर पहुंची हैं। गुड़ की पट्टी लहंटा का ही सूखा स्वरूप है।

उधर आंवले तोड़े जा रहे हैं। आंवले का अचार बनेगा, मगर अचार से ज्यादा तो आंवले का मुरब्बा बनेगा। आंवले की गुड़ मिली कैंडी बनेगी। इसमें थोड़ा जीरा, थोड़ी सोंठ और थोड़ी काली मिर्च पड़ेगी। बस हफ्ते भर में ही आपको प्रतापगढ़ के अधिकतर घरों के आंगन में आंवले सूखते मिलेंगे। मगर मुझे लगता है कि इस मौसम वाली एकादशी खट्टे से कहीं ज्यादा जीवन में मिठाई भरने के लिए मनाई जाती है। हम कितने भी हैरान-परेशान हों, नशे की तरह ही मीठा भी हमें तुरंत सुख देता है। इसी सुख के स्वागत के लिए फैजाबाद, सुल्तानपुर, गोंडा, बहराइच, बाराबंकी, रायबरेली, बस्ती आदि के किसान अयोध्या में जुटते हैं, भगवान राम की परिक्रमा करते हैं और कनक भवन में दर्शन कर अपने-अपने खेतों में हंसिया-गंड़ासा लेकर उतर पड़ते हैं। एकादशी की रात तो और भी ढेरों चीजें होती हैं। कुछ बहुत पहले होती थीं, जो अब कभी-कभार ही देखने को मिलती हैं। कुछ अब भी होती हैं, जैसे गन्ने की गेंड़ तोड़कर सूप बजाते हुए दलिद्दर भगाना।

मेरी अम्मा अब लगभग 94-95 की हो चुकी हैं और अभी भी उनको फाग, नकटा, नकटा राग, गारी, द्वारचार और विदाई वाले गीत याद हैं। मैंने उनसे पूछा कि अब उनको एकादशी में क्या देखने को नहीं मिलता? ऐसा लगा कि जैसे भरी बैठी हों। कहने लगीं, अब तो किसी में एकादशी की इज्जत ही नहीं है। बहुत से लोग तो एकादशी के पहले ही गन्ना काटने लगे हैं। अब न चौक पूरी जाती है, न उसमें पांच गन्ना देवता को चढ़ाया जाता है, न सात गन्ने भवानी को चढ़ाते हैं। पूरे परिवार को एक साथ बैठकर गन्ने का डिठवन करना होता था, यानी चूसना होता था, तो अब तो परिवार ही नहीं रहे। उन्हीं चूसे हुए गन्नों में से एक की गेंड़ लेकर सुबह सूप पीटना होता था। अब तो बस सूप ही पिटता है, इसीलिए दलिद्दर हैं कि भागते ही नहीं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स 

पिछले हफ्ते हमारे यहां अयोध्या में एकादशी मनाई गई। पंचकोसी और चौदह कोसी परिक्रमा हुई, जिसमें लगभग पैंतीस-चालीस लाख लोगों ने हिस्सा लिया। अवध में एकादशी पूरी तरह से किसानों का त्योहार है। एकादशी से ही गन्ना कटना शुरू होता है, आंवले तोड़े जाते हैं। अक्टूबर-नवंबर हमारे यहां खट्टे-मीठे स्वाद के स्वागत का मौसम है। अब गांव-गांव से गुड़ पकने की खुशबू आने लगी है। कहीं सिंपल भेली बना रहे हैं तो कहीं गरी, सोंठ, छुहारे वाली मिक्स भेली। लहंटा अलग खींचा जा रहा है। खींच-खींचकर जब उसे भूरे से सफेद कर देंगे, तो कुछ लोग बांस के डंडे में लपेट कर अपनी साइकिल से गली-गली घूमेंगे और केवड़े से महकती चीनी की गुड़िया, बुढ़िया, फूल बनाकर बेचेंगे। फिर खांड भी बन रही है। ठंडे पानी में गुड़ नहीं घुलता, इसलिए खांड बनती है। भीषण गर्मी में जब कोई शहर से हमारे गांव आएगा, तो तुरंत चापाकल से ठंडा पानी निकाला जाएगा, और खांड घोलकर गन्ने का रस हाजिर किया जाएगा। जाड़े आने वाले हैं तो बड़की मौसी मूंगफली वाली पट्टी बनाने के लिए बड़ा थाल लेकर कोल्हू पर पहुंची हैं। गुड़ की पट्टी लहंटा का ही सूखा स्वरूप है।

उधर आंवले तोड़े जा रहे हैं। आंवले का अचार बनेगा, मगर अचार से ज्यादा तो आंवले का मुरब्बा बनेगा। आंवले की गुड़ मिली कैंडी बनेगी। इसमें थोड़ा जीरा, थोड़ी सोंठ और थोड़ी काली मिर्च पड़ेगी। बस हफ्ते भर में ही आपको प्रतापगढ़ के अधिकतर घरों के आंगन में आंवले सूखते मिलेंगे। मगर मुझे लगता है कि इस मौसम वाली एकादशी खट्टे से कहीं ज्यादा जीवन में मिठाई भरने के लिए मनाई जाती है। हम कितने भी हैरान-परेशान हों, नशे की तरह ही मीठा भी हमें तुरंत सुख देता है। इसी सुख के स्वागत के लिए फैजाबाद, सुल्तानपुर, गोंडा, बहराइच, बाराबंकी, रायबरेली, बस्ती आदि के किसान अयोध्या में जुटते हैं, भगवान राम की परिक्रमा करते हैं और कनक भवन में दर्शन कर अपने-अपने खेतों में हंसिया-गंड़ासा लेकर उतर पड़ते हैं। एकादशी की रात तो और भी ढेरों चीजें होती हैं। कुछ बहुत पहले होती थीं, जो अब कभी-कभार ही देखने को मिलती हैं। कुछ अब भी होती हैं, जैसे गन्ने की गेंड़ तोड़कर सूप बजाते हुए दलिद्दर भगाना।

मेरी अम्मा अब लगभग 94-95 की हो चुकी हैं और अभी भी उनको फाग, नकटा, नकटा राग, गारी, द्वारचार और विदाई वाले गीत याद हैं। मैंने उनसे पूछा कि अब उनको एकादशी में क्या देखने को नहीं मिलता? ऐसा लगा कि जैसे भरी बैठी हों। कहने लगीं, अब तो किसी में एकादशी की इज्जत ही नहीं है। बहुत से लोग तो एकादशी के पहले ही गन्ना काटने लगे हैं। अब न चौक पूरी जाती है, न उसमें पांच गन्ना देवता को चढ़ाया जाता है, न सात गन्ने भवानी को चढ़ाते हैं। पूरे परिवार को एक साथ बैठकर गन्ने का डिठवन करना होता था, यानी चूसना होता था, तो अब तो परिवार ही नहीं रहे। उन्हीं चूसे हुए गन्नों में से एक की गेंड़ लेकर सुबह सूप पीटना होता था। अब तो बस सूप ही पिटता है, इसीलिए दलिद्दर हैं कि भागते ही नहीं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स