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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 12 Apr 2023 1:52 pm IST


शायर की शरारत


ऐसा नहीं कि अरबी शब्द रमादान नहीं था। वह था और उतना ही मुकम्मल था, जितना कि रमजान शब्द है बल्कि उर्दू में अरबी इस्तेमाल करें या फारसी, देखा जाए तो ऐसी कोई बहस ही नहीं है। अरबी और फारसी जुबानें इस्लाम के आने के पहले से ही भारत आ चुकी थीं। यहां तक कि तुर्की भी। यह धंधे-पानी की जुबानें थीं, जबकि तुर्की जुबान आक्रमणकारियों के जरिए आई। मगर शब्द इसके भी हमारी रोजमर्रा की बोलचाल में खूब छने। वैसे, रमजान और रमादान की तरह एक बहस यह भी है कि उर्दू को उर्दू कहें या फिर रेख्ता। इसकी वजह यह है कि उर्दू एक तुर्की जुबान का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘शिविर’ या ‘सेना’। उर्दू शब्द को शाहजहां के शासनकाल में फौज के लिए यूज किया जाता था। मुगल फौज का नाम ही था- उर्दू-ए-मुअल्ला, यानी महान सेना। फौज के साथ जो बाजार होता था, उसे उर्दू बाजार कहते थे। मगर उर्दू खुद इस अर्थ का यूज नहीं करती तो इसलिए कि सेना में हर चीज में एक समानता होती है, जो भाषा में नहीं हो सकती।

वहीं रेख्ता का अर्थ है- बिखरा हुआ, मगर मिला-जुला। मतलब इसमें कई जुबानों के शब्द शामिल हैं, विशेष सम्मान हिंदी (या हिंदुस्तानी), फारसी और संस्कृत को है। रमादान को रमजान कहने के पीछे एक तर्क यह भी है कि भारत में जितने भी सूफी या संत आए, उनकी भाषा फारसी ही रही। फारसी के गर्मी और सर्दी जैसे शब्द कहीं पहले से मौजूद थे, क्योंकि ईसा के भी पहले से फारस के लोग यहां आते-जाते थे। माना जाता है कि रेख्ता शब्द ने 17वीं सदी से लेकर 18वीं सदी के अंत तक उर्दू भाषा की नुमाइंदगी की। साथ-साथ इसे हिंदुस्तानी और हिंदवी भी कहा जाता रहा, क्योंकि 12वीं सदी में अमीर खुसरो ने इसी में शुरुआत की थी। बताते हैं कि सन 1780 में शायर गुलाम हमदानी मुशफी ने हिंदुस्तानी के लिए उर्दू शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया था। कवि शरारती होते हैं और शायद आज जो उर्दू बनाम रेख्ता की बहस है, उसमें कहीं न कहीं शायर की शरारत जरूर है।

रेख्ता को उर्दू कहने के पक्ष में तर्क यह है कि उसकी पैदाइश में तुर्की हाथ ज्यादा है। मगर यह महज एक खामख्याली है। 1987 में इस्लामाबाद से पब्लिश होने वाले मुक्तादिरा कौमी जुबान में तुर्की से उर्दू जुबान में आए 2608 शब्दों की एक लिस्ट छपी थी। जांच में पता चला कि इसमें उर्दू, बेगम, बाजी, तमगा, चकमक और कुली जैसे कुल 24 शब्द ही तुर्की जुबान के थे, बाकी 2584 शब्द मूल रूप से फारसी और अरबी के थे। कई सोर्सेज बताते हैं कि उर्दू में अरबी-फारसी लगभग आधी है, या शायद ज्यादा। वहीं सैयद अहमद देहलवी की उर्दू डिक्शनरी फरहंग-ए-असाफिया के मुताबिक उर्दू में 55000 शब्द संस्कृत और प्राकृत के हैं। रही-सही कसर ब्रज, खड़ी बोली और बाकी स्थानीय भाषाएं पूरी कर देती हैं। यानी उर्दू कुछ भी हो, अपने अर्थ में सेना तो नहीं हो सकती। मोहब्बत भरी इस जुबान में आखिर जंग का क्या काम?

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स