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• Wed, 27 Sep 2023 2:30 pm IST


कहां चले गए वो जिन्हें देखते ही हंसी छूट जाती थी


कभी आपने गौर किया कि हिंदी फिल्मों से हास्य कलाकार पूरी तरह गायब हो चुके हैं। एक वक्त था, जब इनके बिना कोई फिल्म पूरी नहीं होती थी। पर, आजकल की मूवीज़ में ऐसे किरदारों के लिए कोई जगह ही नहीं बची। इस साल की सबसे कामयाब फिल्में जवान, गदर-2 और पठान को ही देख लीजिए। तीनों फिल्में पहली से आखिरी रील तक एक्शन से भरपूर। बाकी किसी रस के लिए फिल्म में कोई जगह ही नहीं। इस साल ही क्या, पिछले कई वर्षों से यही ट्रेंड चल रहा है। लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था। 50 और 60 के दशक में तो हास्य कलाकार हर फिल्म का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे। कुछ कलाकारों ने तो दर्शकों के दिलों में इतनी जगह बना ली थी कि उन्हें ध्यान में रखकर ही खास रोल लिखे जाने लगे थे। 50 के दशक में जॉनी वॉकर और उसके अगले दो दशकों तक महमूद ने हिंदी सिने जगत पर राज किया। महमूद ने तो इतने बड़े स्टार का दर्जा हासिल कर लिया था कि उनका होना ही किसी फिल्म की सफलता की गारंटी बन गया था। यही वजह थी कि फिल्म निर्माता उन्हें किसी भी कीमत पर साइन करने को तैयार रहते थे। कई फिल्मों में तो उन्हें लीड एक्टर्स से भी ज्यादा पैसा दिया गया।

उस दौर में दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, गुरुदत्त, राजेंद्र कुमार जैसे सुपरस्टार्स के बीच अपनी अलग जगह बनाना बड़ी बात थी। यूं तो और भी बहुत से हास्य कलाकार हुए लेकिन भगवान दादा, मुकरी, टुनटुन, केश्टो मुखर्जी, जगदीप वगैरह ही थोड़ी बहुत छाप छोड़ पाए। हिंदी फिल्मों के आखिरी स्टार कमीडियन जॉनी लीवर माने जा सकते हैं, जिनका 90 के दशक की फिल्मों में खूब जलवा रहा। परदे पर उनके आते ही दर्शकों की हंसी छूट जाती थी। उनके चेहरे की भाव भंगिमाएं और बोलने का तरीका लोगों को गुदगुदा जाता था। उनके बाद धीरे-धीरे फिल्मों में हास्य कलाकारों के लिए जगह ही खत्म होती गई। दरअसल, गोविंदा, अक्षय कुमार जैसे हीरो खुद ही कॉमिडी करने लगे तो कमीडियंस की ज़रूरत ही नहीं बची।

उस वक्त तक सैटेलाइट टीवी और अन्य माध्यमों के ज़रिए हॉलिवुड फिल्में भी घर-घर तक पहुंच गई थीं, जहां अलग-अलग जॉनर के हिसाब से फिल्में बनती हैं, जैसे एक्शन, सस्पेंस थ्रिलर, हॉरर, कॉमिडी, डॉक्युड्रामा आदि। वैसा ही चलन हिंदी फिल्मों में भी शुरू हो गया। अब कॉमिडी देखनी है तो गोलमाल, धमाल, नो एंट्री जैसी पूरी फिल्म ही देखनी होगी। फिल्म देखने जाते वक्त ही लोगों को पता है कि वे हंसने के लिए जा रहे हैं या एक्शन देखने। ओटीटी के आने के बाद से फिल्मों की लंबाई भी घटकर डेढ़-दो घंटे के करीब रह गई। एक वक्त था जब मनोरंजन का एकमात्र साधन फिल्में ही थीं, तो थिएटर में तीन घंटे तक दर्शकों को एंटरटेन करने के लिए एक्शन, सस्पेंस, कॉमिडी, रोना-धोना, गीत-संगीत से लेकर सारे मसाले डाले जाते थे। इसलिए उनमें हर तरह के कलाकारों के लिए जगह होती थी। अब ओटीटी और रील्स वाले दर्शक हैं, जिन्हें कम ड्यूरेशन की चीजें देखने की आदत है। ये जनरेशन सिनेमाहॉल में 3 घंटे नहीं बिता सकती। इसीलिए आप देखते होंगे कि थिएटर में फिल्म चलने के दौरान भी लोग अपना मोबाइल ही चेक करते रहते हैं।

हालांकि दक्षिण के सिनेमा में अब भी कमीडियन पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं। हास्य कलाकारों के लिए आज भी वहां रोल लिखे जा रहे हैं और कुछ तो काफी मशहूर भी हैं। यह बात अलग है कि यह कॉमिडी एक जैसी ही होती है। हिंदी के दर्शक अब ऐसा हास्य शायद पसंद नहीं करते। हास्य का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। बड़े परदे से निकलकर हास्य कलाकार अब वापस स्टेज पर आ गए हैं। ये स्टैंडअप कमीडियन का ज़माना है, जो अपनी कॉमिक टाइमिंग से लाइव ऑडियंस को गुदगुदाते हैं। देखा जाए तो हमारे कमीडियंस गायब नहीं हुए, बस दर्शकों से मुखातिब होने का ज़रिया बदल गया है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स