क्या यह सही है कि आदमी को हमेशा उसके काम से से ही जज करना चाहिए? यानी साहित्यकार को उसकी साहित्यिक कृतियों से तो संपादकों को उनके अखबारों, पत्रिकाओं या चैनलों की क्वॉलिटी से और इसी तरह रिपोर्टरों को उनकी रिपोर्टों से?
सवाल पुराना है लेकिन अलग-अलग संदर्भों में नए-नए रूप धरकर सामने आता रहता है। मैंने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब भी ये सवाल उठे थे जो मुझे स्वाभाविक ही बिलकुल नए लगे थे। कहावत है, सावन जनमा सियार और भादो आई बाढ़, बोला ऐसी बाढ़ जिंदगी में देखी ही नहीं थी। मुंबई के पत्रकार जगत में तब एक प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका से सेवानिवृत्त हुए एक कद्दावर संपादक के कथित तौर पर आतंकित करने वाले व्यक्तित्व की काफी चर्चा थी। कहा जाता था, उनकी टीम के लोगों पर उनका इस कदर खौफ रहता था कि बहुतों का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होने लगा था। हालांकि इस वर्जन को चुनौती देते स्वर भी मौजूद थे। सो, इन परस्परविरोधी आख्यानों से उलझे मन को इसी सूत्र ने सहारा दिया कि हमें इससे क्या मतलब कि वह अपनी टीम के साथ किस तरह पेश आते थे। एक संपादक के तौर पर उनका कद पत्रिका की क्वॉलिटी पर निर्भर करता है, जिसे लेकर कहीं कोई विवाद नहीं है। सो, आप व्यक्ति पर चाहे जो भी सवाल उठाएं, उससे संपादक की छवि पर कोई आंच नहीं आती, न ही आनी चाहिए।
बाद के दिनों में कुछ ऐसे ही सवाल रिपोर्टरों को लेकर उठे। जिस अखबार से मैं उस वक्त जुड़ा था, उसमें सबसे अच्छी रिपोर्ट्स लेकर आने वाले रिपोर्टरों के बारे में कहा जाता था कि वे रैकेटियर हैं। फिर वही व्याख्या काम आई कि जो अच्छी रिपोर्ट लाए वह अच्छा रिपोर्टर। जो सत्यव्रती रिपोर्टर हैं, उन्हें अपनी ईमानदारी और सचाई की बदौलत बेहतर रिपोर्ट लाकर उन कथित रैकेटियर रिपोर्टरों को नीचा दिखाना चाहिए न कि झूठे-सच्चे आरोपों के जरिए। ऐसे ही कुछ सम्माननीय साहित्यकारों की क्षुद्रता की प्रचलित कहानियों से साबका पड़ा तो इसी दलील ने भ्रम के जाले साफ किए।
मगर जिंदगी आसान जवाबों से हार कर कठिन सवाल पेश करना बंद थोड़े ही करती है। कुछ समय बाद एक ऐसे संपादक के खिलाफ यौन शोषण के आरोप बाहर आने शुरू हुए, जिन्हें युवावस्था के दिनों से ही लगभग आदर्श के रूप में देखता आ रहा था। इन आरोपों के झटके से उबरा भी नहीं था कि एक अत्यंत सम्मानित बुजुर्ग साहित्यकार के खिलाफ उनके दिवंगत होने के बाद ऐसा वीभत्स आरोप सामने आया कि अंतरात्मा हिल उठी। जिसके साहित्य से इतनी प्रेरणा और ताकत मिलती रही है, उसका यह रूप कैसे बर्दाश्त किया जाए। इस झटके ने हाथ से वह सूत्र भी छुड़ा दिया जो अब तक उलझन दूर करने के काम आता था। मैं वह छूटा सिरा दोबारा पकड़ने की कोशिश कर रहा था और जिंदगी मुस्कुरा रही थी कि बच्चू कब तक बचोगे आसान जवाबों की आड़ में।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स