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DevBhoomi Insider Desk
• Thu, 25 May 2023 3:29 pm IST


फिल्म भी देखी पैसे भी बटोरे


जिस रांची को देश ने बाद में धोनी की वजह से जाना, उससे कोई डेढ़ घंटे की दूरी पर पतरातू नाम की जगह है। अब यह जगह झारखंड में है, लेकिन बात तब की है, जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। उस वक्त पतरातू बिहार के हजारीबाग जिले का हिस्सा हुआ करता था। अब यह जिला भी झारखंड में है। पतरातू में राज्य सरकार का कोयले से चलने वाला पावर प्लांट था, जिसमें मेरे पिता काम करते थे। यह काम ही हमारे परिवार को पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से वहां लेकर गया था। बोकारो के स्टील प्लांट की तरह ही इसे भी नेहरू के आधुनिक उद्योग खड़ा करने की मुहिम के तहत सोवियत संघ से आए इंजीनियरों ने बनाया था।

जब तक मैंने होश संभाला, तब तक यहां रूसी लोगों के किस्से ही रह गए थे, रूसी तो कब के पतरातू छोड़कर जा चुके थे। पावर प्लांट की बाद की यूनिटें भारतीय इंजीनियरों ने बनाईं, इसलिए उन्हें ‘इंडियन साइड’ और पहले की दो यूनिटों को ‘रशियन साइड’ कहा जाता था। प्लांट में काम करने वालों को ओहदे के हिसाब से घर अलॉट किए जाते थे। उनके मनोरंजन के लिए ऑफिसर्स क्लब और श्रम कल्याण केंद्र (वर्कर्स क्लब) नाम से दो क्लब भी बनाए गए थे। इनमें हर सप्ताह मुफ्त फिल्में भी दिखाई जाती थीं। ऑफिसर्स क्लब में इनडोर और श्रम कल्याण केंद्र में आउटडोर। ऑफिसर्स क्लब में तो दिन में भी फिल्में दिखाई जा सकती थीं, मगर श्रम कल्याण केंद्र की दिक्कत यह थी कि वहां प्रॉजेक्टर पर रील तभी चढ़ती, जब अंधेरा कुछ घना होता।


कई साल तक इन्हीं दो जगहों पर फिल्में दिखाई जाती रहीं, लेकिन जब मैं 12 साल का हुआ, तब तीन-चार जगहों पर इन्हें दिखाया जाने लगा। मेरा घर श्रम कल्याण केंद्र से दो किलोमीटर दूर था। जब फिल्मों को तीन-चार जगहों पर दिखाने की व्यवस्था शुरू हुई, तो उनमें से एक ठीक मेरे घर के पीछे थी। अब फिल्म देखने के लिए दो किलोमीटर घिसकर श्रम कल्याण केंद्र तक जाने की जरूरत खत्म हो गई। फिर 12 साल के बच्चे को कौन घर से दूर जाने देता। इसके चलते वहां जाने की इजाजत माता-पिता से बमुश्किल ही मिल पाती थी। लेकिन जब मेरे घर के पीछे ही फिल्म चलने लगी, तो माता-पिता की यह रोक थोड़ी ढीली हुई। अमिताभ बच्चन तब सबसे बड़े स्टार थे और उनकी नसीब, आनंद, शान जैसी फिल्में मैंने यहीं देखीं।

फिल्म दिखाने के लिए एक तरफ दो डंडों के बीच बड़ा सफेद पर्दा टांगा जाता और प्रॉजेक्टर से रात को फिल्म दिखाई जाती। परदे के सामने लोग जमीन पर बैठकर फिल्में देखते। जितनी दिलचस्पी हम लोगों की फिल्म देखने में होती, उससे भी ज्यादा अगली सुबह में। उसकी वजह यह थी कि पिछली रात जहां लोग बैठकर फिल्में देख रहे होते, उनकी जेब से सिक्के और नोट जमीन पर गिर जाते। इसलिए अगली सुबह वहां बच्चे पहुंचकर पैसे ढूंढते थे और मुझे शायद ही कभी इस मामले में मायूस होना पड़ा हो। हम बच्चों को वहां से जो पैसे मिलते, उससे हम कंचे, टॉफी और लट्टू खरीदा करते। 1988 में इसी तरह एक बार मुझे वहां 5 रुपये मिले थे। कल जब मैं अपने दफ्तर से निकला तो नीचे सड़क की ओर देखते हुए खयाल आया कि अब सड़कों पर रुपये या सिक्के नहीं मिलते। कम से कम मुझे तो बरसों से नहीं मिले। यानी अब सड़कें भी कैशलेस हो गई हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स