पूर्व सोवियत गणराज्य यूक्रेन पर अपना प्रभुत्व जमाने को लेकर रूस और अमेरिका के बीच पैदा सैन्य तनाव खुली लड़ाई में बदला तो इसके भयावह नतीजे न केवल यूरोप बल्कि पूरी दुनिया को झेलने पड़ सकते हैं। इसके मद्देनजर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की समर नीति पर सवाल नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) में भी उठाए जाने लगे हैं। पूछा जा रहा है कि रूस की घेरेबंदी की इस नीति पर अड़े रहना अमेरिका के लिए दीर्घकालीन नजरिये से कितना अनुकूल होगा। रूस से सीधे टकराव की स्थिति में अमेरिका का ध्यान हिंद-प्रशांत के क्वाड (अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान) गठजोड़ को मजबूत करने से हट जाएगा, जिससे चीन को भारी राहत मिलेगी। गौरतलब है कि अमेरिका ने चीन को सबसे बड़ी सामरिक चुनौती के तौर पर घोषित किया है। इसलिए उसे चीन से निबटने की प्राथमिकता के मद्देजनर रूस के साथ होड़ को दुश्मनी में नहीं बदलना चाहिए था।
मनगढ़ंत आरोप
कहा जा रहा है कि अपनी सीमाओं से हजारों मील दूर जाकर अपनी दादागीरी दिखाना अमेरिका पर उसी तरह भारी पड़ेगा, जैसा कि पश्चिम एशिया में पिछले दो दशकों के दौरान सबने देखा है। हालांकि अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के लिए अलकायदा-तालिबान गठजोड़ ने उकसाया था। उस हमले का पूरी दुनिया ने स्वागत भी किया था। लेकिन इसके बाद अमेरिका उस शेर जैसा बर्ताव करने लगा, जिसे मानव-खून का स्वाद लग गया हो। अफगानिस्तान में आतंकवाद से लड़ने का मिशन शुरू ही हुआ था कि अमेरिका ने इराक की गैरकट्टरपंथी मानी जाने वाली सद्दाम हुसैन सरकार को गिराने के लिए उस पर मनगढंत आरोप लगा दिए। कहा कि इराक परमाणु हथियार बना रहा है। ये आरोप कभी सिद्ध नहीं हुए, लेकिन अमेरिका ने सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा कर ही दम लिया। इराक में अमेरिका की पिट्ठू सरकार तो बनी लेकिन वहां वह प्रभुत्व नहीं जमा सका। इराक और आसपास के इलाकों में इस्लामिक स्टेट नाम के अधिक खूंखार आतंकवादी संगठन ने जन्म लिया औऱ कुछ ही सालों में इसने अपने पांव न केवल पूरे पश्चिम एशिया में फैला लिए बल्कि दक्षिण एशियाई मुल्कों में भी इसके गुर्गे देखे जाने लगे।
पश्चिम एशिया में इराक के बाद एक और गैरकट्टरपंथी देश लीबिया के कर्नल गद्दाफी के पांव जब अमेरिका ने उखाड़े तो इस्लामिक स्टेट को वहां भी पांव पसारने का मौका मिला। इससे भी मन नहीं भरा तो एक और गैरकट्टरपंथी इस्लामी मुल्क सीरिया की असद सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए अमेरिका ने उन विद्रोही ताकतों को अपना लिया, जिनके तार इस्लामिक स्टेट से जुड़े थे। असद सरकार को गिराने के लिए 2015 के बाद से अमेरिकी लड़ाकू विमानों ने जिस तरह सीरिया का जनजीवन तबाह किया, वह अक्षम्य है। सीरिया के पक्ष में रूस खड़ा नहीं होता तो असद सरकार भी अमेरिकी फौजों के हत्थे चढ़ चुकी होती।
सद्दाम हुसैन, कर्नल गद्दाफी और बशर असद को भले ही तानाशाह राष्ट्रपति कहा जाए और भले ही इन तीनों ने कभी अमेरिकी चौधराहट स्वीकार नहीं की हो, लेकिन यह भी सच है कि इनके जीवनकाल में इनकी धरती पर कभी आतंकवाद ने अपना फन नहीं उठाया। इन तीनों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई कर अमेरिका ने पूरे पश्चिम एशिया को इस तरह अस्थिर कर दिया कि उसके बुरे नतीजे इस संपूर्ण क्षेत्र के आम जनजीवन पर देखे जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि इतना सब कर गुजरने का अमेरिका को क्या फायदा हुआ, यह भी साफ नहीं है। इन तीनों मुल्कों में अस्थिरता की वजह से ही खनिज तेल के दाम आसमान छूने लगे हैं, जिसका असर भारत सहित पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर देखा जा रहा है।
अमेरिका ने दो दशक पहले अफगानिस्तान को अपने नियंत्रण में तो लिया, लेकिन इसके तुरंत बाद इराक में भी सेंध मारने की वजह से अफगानिस्तान उसके हाथ से निकलना शुरू हो गया। पश्चिम एशिया पर अपना सामरिक दबदबा बनाने के लिए अमेरिका ने जहां लीबिया और सीरिया में तबाही मचाई, वहीं आतंकवादी तालिबान और अलकायदा को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान की खुशामद की नीति भी अपनाई, जिसकी वजह से अफगानिस्तान में उसके पांव उखड़े और काबुल से दुम दबाकर अमेरिकी फौज को रातोरात सारे सैनिक साजो-सामान छोड़कर भागना पड़ा। आज आतंकवादी ताकतों की वजह से पश्चिम एशिया झुलस रहा है और वहां घोर मानवीय त्रासदी का अंतहीन सिलसिला जारी है।
अब अमेरिका ने जिस तरह से यूक्रेन में नाटो की सेना तैनात करनी शुरू की है, वह उसके लिए पश्चिम एशिया से भी बड़ी सामरिक भूल साबित होगी। यूक्रेन पूर्व सोवियत संघ का एक गणराज्य रहा है। भले 1991 में वह आजाद हो गया हो, पर वह इस तरह अमेरिकी खेमे में चला जाए और अमेरिकी अगुआई वाले नाटो सैनिकों की इस इलाके में तैनाती का जरिया बन जाए, यह रूसी नेतृत्व को नागवार गुजरना स्वाभाविक है। अमेरिका यूक्रेन पर इसलिए नहीं लड़ रहा कि उसे वहां के जनतांत्रिक शासन या वहां के लोगों से प्यार है। वह यूक्रेन के बहाने रूस की सीमाओं पर अपने सैनिक तैनात कर उसकी सामरिक घेरेबंदी को मजबूत करना चाहता है। पूर्वी यूरोप के पोलैंड, बुलगारिया, चेक आदि देश यूरोपीय संघ के सदस्य बन चुके हैं, जिनकी रक्षा की नैतिक जिम्मेदारी अमेरिका ले रहा है।
वह पुराना वादा
1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो सोवियत अगुआई वाले सैन्य संगठन वारसा पैक्ट को इस अमेरिकी वादे के बाद भंग किया गया कि वह सोवियत संघ से आजाद हुए मुल्कों को नाटो का सदस्य नहीं बनाएगा। इस वादे का समुचित आदर करते हुए अगर अमेरिका रूस से सहयोग गहरा करने की नीति पर चलता रहता तो वह आज चीन से बेहतर और प्रभावी ढंग से निबट सकता था। उसके लिए अब चीन से निबटना पहाड़ साबित होगा। पिछले दशकों में अमेरिका ने जो सामरिक भूलें की हैं, यूक्रेन उसी सिलसिले की अगली कड़ी साबित होने वाला है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स